विचार शाश्वत होते हैं परंतु उनका उद्गम भाषा से ही संभव है क्योंकि उसी की वल्गाओं को थामकर वे मूर्तरूप ले सकते है। इसी कारण भाषा विचारों का शिल्प है , विचारों की पालनहार जननी है , उनके प्रगटीकरण का माध्यम है। भाषा ने अपने विभिन्न स्वरूपों से विभिन्न संस्कृतियों के विकास में अपनी महत्वपूर्ण और सशक्त भूमिका प्रतिपादित की है। इसी कारण भाषा भी प्रवाहमान रही है और कालचक्र से प्रभावित भी होती रही है जिससे इसके स्वरूप मेंभी स्वाभाविक परिवर्तन हुए हैं। हिंदी ने भी इसी कारण समय के साथ बहुत से परिवर्तन देखे हैं। इसका प्राञ्जल स्वरूप भी समय के साथ अपने अस्तित्व के लिए जूझता रहा है। हिंदी ने यह आरोप भी सहा है कि यह उतनी समृद्ध नहीं कि विचारों के सही-सही परिवेश का प्रगटीकरण कर सके। इसके स्वरूप से छेड़छाड़ करने वालों ने यह प्रयास ही नहीं किया कि वे इसकी समृद्धता का समुचित ज्ञान प्राप्त करें और तब इसके विषय में टिप्पणीं करें। कभी-कभी इसकी क्लिष्टता को लेकर भी टिप्पणियां की जाती हैं लेकिन यहां भी प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि अपनी मातृभाषा का अध्ययन न करके ऐसे लोग भाषा को समझने के स्थान पर इसकी दुरूहता का वर्णन करके इससे दूर जाने का उपक्रम करते जान पड़ते है। उन्हें अंग्रेजी भाषा की क्लिष्टता में उसका महात्म और विशिष्टता तथा हिंदी भाषा में उसी धरातल पर अन्यथा टिप्पणीं अधिक सुहाती है। छायावादी कवियों जयशंकर प्रसाद , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला , महादेवी वर्मा , सुमित्रानंदन पन्त और यह भी उल्लेख करना अनुचित न होगा कि मुक्तिबोध जैसे साहित्यकारों ने भी भाषा के विकास के लिए शब्द-माला के साथ अभिनव प्रयोग किये और हिंदी के समृद्ध स्वरूप को अपने साहित्य से अलंकृत किया। आज भी साहित्यकारों के लिए यह चुनौती है कि वे भाषा के विकास के लिए प्रयत्नशील रहें। हिदी एक समृद्ध और सम्पूर्ण भाषा है। इस देश की अभिव्यक्ति की अस्मिता है , इसकी धरोहर है , इसकी थाती है। इसकी स्वीकार्यता इस देश के सांस्कृतिक मूल्यों को वरण करने के समान है !

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