My Thoughts

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि  आज भी यह देश जाति-प्रथा की कुत्सित जंजीरों में जकड़ा हुआ है। भगवान कृष्ण ने कहा था -" चातुर्वण्यं  मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः !"  अर्थात गुण तथा कर्म के आधार पर चार वर्णों की संरचना प्रभु ने की जिसको इसी देश में जन्म से जोड़ कर सब कुछ नष्ट … Continue reading My Thoughts

अजीब रिश्ते

अब इन रिश्तों में वो संज़ीदगी वो गहराई कहाँ , अब तो दुनियाँ के दिखावे को ये निभाए जाते है। ख़ुद-ब-ख़ुद अपनों के रंजोग़म दिल को झकझोरें , ऐसे फ़लसफ़े अब बस किताबों में मिला करते हैं। किसी के किये को याद रखना बहुत ही मुश्किल है , लोग बेरुख़ी का कुछ न कुछ बहाना … Continue reading अजीब रिश्ते

विक्षिप्त चित्रलोक

देखता हूँ अजीब सा नैराश्य , जैसे रिस-रिसकर मानवता , किसी व्यभिचार के बिस्तर पर , आहत सी ले रही हो विक्षिप्त सी साँसें , क्लान्त और बुझे मन से , तिमिर अतल से धुँधलके को चीरते , अनात्म भाव से विचलित होकर , देखती हों केवल चुभते शून्य , और कुछ अजन्मे से दुःस्वप्न … Continue reading विक्षिप्त चित्रलोक

सिलवटें

जिंदगी बहुत चाहा मैंने कि तेरी सिलवटें खोल दूँ , पर तू तो बेगानों की तरह और भी उलझती गयी। बहुत चाहा नयनों में काजल की तरह सजाऊँ तुझे , पर तू तो सियहरात बनके सपनों को छलती रही। बहुत चाहा उषा की लालिमा की तरह संवारूँ तुझे , पर तू तो विकट विद्युल्लता बन … Continue reading सिलवटें

शब्द-चित्र

अनमना सा देखता हूँ सामने दीवार पर , मन्द -मन्द -सी किन्तु विलुलित रोशनी में , बनते-बिगड़ते और फिर खुद ही सँवरते , अपने माज़ी को पहचान देने को आतुर , कुछ गहराई तक साँस लेते शब्द-चित्र ! जो तैरते हैं मेरी धमनियों में लहू बनकर , जो अन्तस में थिरकते हैं धड़कन बनकर , … Continue reading शब्द-चित्र

अजनबी स्वप्न

कौनसे अजनबी वो मेरे स्वप्न थे , आसमानों से मनुहार करते रहे , तेज हवाओं के झोंके बनकर जो , मुझसे मेरी जमीन ही छुड़ाते रहे ! अजनबी शहर की तपिश में भी , उन्हीं रिश्तों-नातों को ढूँढा किए , कितने ही नकाबों में लिपटे हुए , जो हर रोज़ छलावे करते रहे ! हवाओं … Continue reading अजनबी स्वप्न

जीवन-धारा

किनारे सदियों से रहते हैं शान्त , अविचल , बेबस , देखते रहते हैं गतिमान जल-धारा का अविरल प्रवाह ! सुनते रहते हैं किसी कालजयी विवशता के वशीभूत , अजन्मी उच्छृंखल लहरों के वेगयुक्त भीषण निनाद ! किनारे कदाचित भिज्ञ हैं अपनी इस शापित नियति से , नहीं कहते कुछ भी इस मनचली-इठलाती जल-धारा से … Continue reading जीवन-धारा

खुशरंग गुलाब

सुनो पथिक ! इन हवाओं पर लिखा पैगाम सुनो , इन पर किसी ने लिख डाली है , ईर्ष्या , द्वेष , वैमनस्य और टकराव की इबारत , अब ये हवाएँ कर रही हैं विषाक्त , तुम्हारे इस उपवन को , जिसमें कभी पल्लवित थे खुशरंग गुलाब। क्या तुम नहीं देखते और बूझते , इन … Continue reading खुशरंग गुलाब