यह इस देश का दुर्भाग्य है कि आज भी यह देश जाति-प्रथा की कुत्सित जंजीरों में जकड़ा हुआ है। भगवान कृष्ण ने कहा था -” चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः !” अर्थात गुण तथा कर्म के आधार पर चार वर्णों की संरचना प्रभु ने की जिसको इसी देश में जन्म से जोड़ कर सब कुछ नष्ट कर दिया गया। आश्चर्य होता है कि कैसे अर्थ का अनर्थ इस देश के समाज ने अपने निजी स्वार्थो तथा वर्चस्व के लिए कर दिया और आज इसका वो रूप सामने है जो लगभ २५०० वर्ष पूर्व तथागत के समय में था। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि सभ्यताओं के विकास में यह अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू निरंतरता से कैसे नकारा जाता रहा और आज हम फिर से इसकी जड़ों की गहराई नापने में स्वयं को असमर्थ पाते है। यह दुःखद ही नहीं अपितु मानवीय मूल्यों की गिरावट की पराकाष्ठा को भी दर्शाता है। लोग इस देश की राजनीति को इसके लिए दोषी मानते हैं परन्तु सत्य तो यह है कि राजनीति भी तो इसी देश के समाज के गर्भ से उत्पन्न होती है। राजनेता अपने निष्पादित कार्य के स्थान पर तभी तो इस कुत्सित व्यवस्था के आधार पर चुनाव लड़ते हैं क्योकि समाज में इसकी जड़े बहुत गहरी है। यदि समाज इस कुत्सित व्यवस्था के भेदभाव को त्याग कर भारतीय होने पर गर्व करे और मनुष्य का आंकलन उसके गुणों के आधार पर करे तो जाति -प्रथा की बुराइयों से बचा जा सकता है। ऐसा कब होगा यह तो भविष्य के गर्भ में कहीं समाया है जिसे कोई नहीं जानता ?