देश के सबसे बड़े राज्य के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर जनआकांक्षाओं की जनक्रांति का उद्घोष किया है। इन चुनाव परिणामों को किसी दल विशेष की मात्र जीत के रूप में देखना इसका सतही आंकलन होगा और कदाचित इस जनआंदोलन को नकारने जैसा ही होगा और फिर से अतीत में भी जनता द्वारा की गयी अभिव्यक्ति को बड़ी आशा से चुने गए जनप्रतिनिधियों द्वारा विफलता का बाना पहनाने की पुनरावृत्ति ही होगा। इस देश में आज भी बहुत गरीबी है , आर्थिक असमानताओं की गहरी खाई है , विपन्नता है , अपनों के ही हाथों शोषण का मायाजाल है। वायदों के भुलावों ने इस देश की जनता को बार-बार लूटा है और अपनी दशा में सुधार की आशा संजोये यह भोली-भाली जनता बार-बार छलावों का शिकार हुई है। इस जनता ने एक बार फिर उम्मीद बाँधी है। एक बार फिर से एक अपने से ही दिखने वाले से आस और आकांक्षा की डोर बाँधने का स्वप्न संजोया है। उसकी इस आकांक्षा और अपेक्षा से कितना न्याय होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा। अतः इन चुनाव परिणामों से यदि जिम्मेदारियों के निर्वहन के संकल्प के स्थान पर अपनी विजय की गाथा लिखने की भूल की गयी तो जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ कदाचित न्याय नहीं होगा। राजनीति को व्यवसाय और उसमें मिली जीत को व्यावसायिक जीत समझना एक और भूल होगी जो इस देश में बार-बार दोहराई गयी है। यही आशा है कि इस बार की जनक्रांति जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को तिरस्कार देने के स्थान पर कुछ सार्थकता का बोध कराएगी !