ये बारिश हमेशा रूमानी नहीं होती ,
हमेशा इसमें सुकुमारता नहीं होती।।

देखता हूँ छतों से रिसते पानी को ,
सीलन की दुर्गन्ध और बेबसी को।
सीली हुई माचिस की तीलियों को ,
हथेली में रगड़ने की कोशिशों को।।

देखता हूँ विकृत से जल-भराव को ,
पलायन करती बेबस जिन्दगी को।
दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत ,
आश्रय ढूँढती इन्सानों की भीड़ को।।

देखता हूँ दूर फटते हुए बादलों को ,
उनमें डूबती हुई अनगिनत साँसों को।
किसी तल-खोह अँधेरे में समा गयी ,
उनकी अनकही और दारुण वेदना को।।

सुनता हूँ दूर उनकी वो मलिन पुकार ,
जो माँगती है बस आश्रय की छत को।
जिसकी अपेक्षा है दो जून की रोटी क़ो ,
और बस तन ढकने के लिए वस्त्र को ।।

इसीलिए कहता हूँ ज़रा ग़ौर से सुनो ,
ये बारिश हमेशा रूमानी नहीं होती।
सुकुमारता के गीत भला मैं कैसे दूँ ,
जब मचा हो कोहराम जीवन रक्षा को ।।

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