कभी-कभी सोचता हूँ धर्म क्या है ? बचपन में पढ़ा था कि Man’s calling of one’s duty is called Dharma . धर्म की इस व्याख्या को आज भी मेरा मन इतना ही प्रासंगिक मानता है जितना कि बचपन में मानता था। जगह-जगह हो रहे विचारों के द्वंद्व और पनपती घृणा। कभी-कभी सोचता हूँ यह कैसा धर्म है। लोग अपने कर्तव्य को भूलते जा रहे हैं और इसी कारण धर्म की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। ऐसा कौनसा धर्म है जो परस्पर प्रेम और समभाव की बात न करता हो। जिसके मूल में प्राणियों के लिए प्रेम न हो परन्तु समस्त कठिनाई अनुयाइयों को लेकर है , जिनकी प्रतिबद्धता की जकड़न धर्म को ही अधर्म में बदल देती है। अब तो न जाने कितने स्वार्थों के लिए धर्म का दुरूपयोग होता है। राजनीतिक और सामाजिक उड़ानों में धर्म की किस कदर मठाधीशों ने बलि दी है , यह इतिहास है और इसकी समाप्ति का कोई द्रष्टव्य भी दृष्टिगत नहीं होता। सदियों से लोगों की भोली-भाली मान्यताओं को इसी प्रकार धर्म के ठेकेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया है और धर्मान्धता का नर्तन भी किया है। सभ्यताओं को कुचलने में भी धर्म का सहारा लिया गया है। कितना घृणित है यह सब। परन्तु समय के साथ मनुष्य ने कोई सबक लिया हो , ऐसा दिखता नहीं है। आज भी कट्टपंथियों और धर्मांध लोगों के कारण विश्व एक अनचाहे संकट की ओर बढ़ रहा है। क्या इसे रोकने के लिए लोगों को मानसिक रूप से दृढ़ होना जरूरी नहीं है ? क्या धर्मान्धता से दूर रहना जरुरी नहीं है ?क्या धर्म के नाम पर अपनी रोटी सेकने वालों के नाटकों से सजग रहना जरुरी नहीं है ?