वीरान हवेली :

जहाँ कभी रोशनी का परचम था , वहाँ धड़कनों में सुलगते हैं रूह के ग़म , अँधेरों के किरदार अक्सर खेलते हैं , रात के रूखे-सूखे पत्तों से , बेनूर हसरतें पहरा देती हैं , अश्कों के रिसते कतरों का , कुछ बासी लम्हे रुककर देखते हैं , जिस्मों के ईंधन में तपे रिश्तों को … Continue reading वीरान हवेली :

अश्कों की चादर में वक़्त :

आज फिर चाँद की पेशानी पे सिलवटें हैं , आज फिर लपटों में चाँदनी जली होगी , वक़्त किसी पेड़ के नीचे बैठा , अश्कों की चादर में सिमटा होगा , किसी तल-खोह-अँधेरे में अंधा कुआँ , अपनी बेबसी पर सिसक रहा होगा , रात पथराई आँखों में नमी तलाशती , गूँगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू … Continue reading अश्कों की चादर में वक़्त :

नया दौर :

कभी पगडंडी भी अक्सर हालेदिल पूछा  करती थी , अब तो ये सड़क  बेरुख़ी से  नज़र चुराती  रहती है ! कभी वो  कुआँ रोज़ पानी  के लिए बुलावा देता था , अब तो पानी की ख़ातिर ज़िद्दोजहद लगी रहती है ! कभी  बावड़ी और तालाबों का ख़ुशनुमा मंज़र था , अब पथरीली इमारतों में साँसों … Continue reading नया दौर :

वक़्त का सन्देश :

वक़्त किसी पेड़ की शाख पर , फड़फड़ाता है आर्त-स्वर में , किसी चोट खाये पंछी की तरह , समेटता है कुछ बासी से लम्हे , कुछ अनकही अनसुनी बातें , बुदबुदाता है हौले से , नीरवता के आँगन में तैरती , कुछ सिमटी हुई ख़ामोशियों से , चाहता है कुछ बताना , अपनी ही … Continue reading वक़्त का सन्देश :

झुलसता कैन्वस :

देखता हूँ अंधी-आकांक्षाओं की , घिनौनी एवं राक्षसी स्वार्थपूर्ति हेतु , चहुँओर तीक्ष्ण-घृणा की तपिश में , चिर हताशा से उबरने की कुचेष्टा के , कुटिल षड्यन्त्र से जलता परिदृश्य , झुलसाते हुए अनमने यौवन को , अपनी बेलगाम निरंकुश लपटों में ! रचता है दिक् भ्रमित से कैन्वस पर , विद्वेष और वैमनस्य की … Continue reading झुलसता कैन्वस :

नूतन वर्ष में क्या लिखूँ ?

सोचता हूँ इस नूतन वर्ष में क्या लिखूँ ? देश की राजनीति का पराभव लिखूँ , या नेताओं की बढ़ती स्वेच्छाचारिता लिखूँ , अशिक्षित बुद्धिजीवियों की स्वार्थलिप्सा लिखूँ , या उनकी तिलिस्मी तिजारत की गाथा लिखूँ , अभिव्यक्ति की निरंकुशता लिखूँ , या भीतरघात करती ज़ुबाँ लिखूँ , बढ़ते जाते बलात्कार लिखूँ , या बाल-शोषण … Continue reading नूतन वर्ष में क्या लिखूँ ?

नए अंदाज़ का शहर :

इस शहर का अंदाज़ कुछ अज़ीब हो गया है , ओहदे तो बढ़ गए हैं इंसान छोटा हो गया है ! यहाँ की हवाएं भी कभी बेवज़ह नहीं चलतीं , यहां रुतों का मिज़ाज भी मग़रूर हो गया है ! ख़ुदग़रज़ी तो यहाँ के हर शख़्स का हुनर है , मौक़ापरस्ती का चलन अब आम … Continue reading नए अंदाज़ का शहर :

प्रेमातुर पक्षी-युग्म :

दूर कहीं पर्वतीय अंचल में , किसी श्रावणी साँझ में , जब रुपहली चाँदनी धीरे-धीरे , समेटती है पर्वत शिलाओं को , अपने मधुरिम आगोश में , और लौटता है जीवन , अपने-अपने धरौंदों में , बहती हुई हवाओं के , मदमत्त झोंकों से अनजान , दिन-रात के झंझावात से दूर , किसी पर्वतीय नदी … Continue reading प्रेमातुर पक्षी-युग्म :

दोराहे पर भविष्य :

समय ले रहा है करवटें , जानता है सारे भेद , फिर भी अनजान बना , देख रहा है अनेक अभिनय ! जो सच है उससे क्या सरोकार , वो तो कहीं भी और कभी भी , बेबस है लुप्त हो जाने को , उसे तो न जाने कितने कुहासों की , तिलिस्मी परतों में … Continue reading दोराहे पर भविष्य :

गन्तव्य की ओर :

अपलक निरन्तर देखता हूँ , दूर किसी विशाल जलाशय में , गन्तव्य तलाशती कोई नाव , प्रश्रय के किनारों से दूर मझधार में , उफनती लहरों को जिजीविषा से भेदती , बीचियों को अपने प्रयास से काटती , कभी झंझावातों के भँवर से आशंकित हो , किसी माझी को तलाशती , कभी-कभी वेगयुक्त तीव्र झोकों … Continue reading गन्तव्य की ओर :