समय ले रहा है करवटें ,
जानता है सारे भेद ,
फिर भी अनजान बना ,
देख रहा है अनेक अभिनय !
जो सच है उससे क्या सरोकार ,
वो तो कहीं भी और कभी भी ,
बेबस है लुप्त हो जाने को ,
उसे तो न जाने कितने कुहासों की ,
तिलिस्मी परतों में ढकने को ,
जारी हैं अनेकानेक प्रयास ,
फिर सत्य ऐसा भी नहीं ,
जो बिक जाता हो कहीं भी ,
उसमें नहीं होता मिर्च-मसाला ,
नहीं होता भुनाने को कोई कथावस्तु ,
और जो बिकता है वर्तमान में ,
वो सत्य नहीं कुछ और है ,
इसीलिए होड़ है उस मसाले की ,
जो बिक सकता हो आसानी से ,
या फिर हो जिसका कोई खरीददार !
इसके लिए कोई मनीषी नहीं ,
चाहिए कोई अभिनेता या अभिनेत्री ,
या फिर कोई नामचीन नेता ,
जो व्यवस्था को तौर-तरीके से ,
दे सके जी भर के गालियाँ ,
और बटोर सके ढेरों तालियाँ !
किसी को सराहो तो कौन पूछता है ?
हाँ गाली दो तो ख़बर बनती है ,
और जब ख़बर बन जाती है ,
तभी तो भविष्य बनता है !
भविष्य का भी क्या कहना ,
अब यह विश्वविद्यालयों में नहीं ,
सड़क पर आन्दोलनों से बनता है ,
पता नहीं कौन सा राजनीतिक दल ,
दे दे अपनी पार्टी का टिकिट ,
चूँकि अब राजनीति ही मंज़िल है ,
इससे बेहतर कोई व्यवसाय नहीं ,
अब क्या रखा है प्रशासनिक सेवाओं में ,
क्या मिलता है डाक्टर , इंजीनियर ,
अध्यापक या शोधकर्ता बनने में ,
भौतिकतावादी वर्तमान में ,
अपना और अपनी पुश्तों का ,
सर्वांगीण हित साधने का ,
अगर पलता है सुखद स्वप्न ,
तो राजनीति से बेहतर कुछ नहीं ,
इसीलिए नए-नए आंदोलन करके ,
मीडिया में छा जाने की है जुगत !
मीडिया का भी है सुनियोजित ,
कदाचित एकमेव हितसाध्य प्रयाण ,
अब वह नहीं दिखाता कोई कार्यक्रम ,
किसी विषय के मनीषी या विद्वान के ,
किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के ,
विश्व में कार्यरूप ले रहे ,
नए-नए अभिनव प्रयोगों के ,
निस्वार्थ जनहित में रत इंसानियत के ,
समाज को उन्नत बनाने के प्रयासों के ,
नैतिकता चरितार्थ करती घटनाओं के ,
हमारी नैसर्गिक पुरातन संस्कृति के ,
मृतप्राय होते जाते सांस्कृतिक मूल्यों के !
अब तो रहती हैं दिन-भर चर्चा में ,
ऎसी घटनाएं और निरर्थक वार्ताएं ,
जिनमें भरमार है मसाले की ,
बहुलता है निरंकुशता की ,
प्रधानता है स्वेच्छाचारिता की ,
पराकाष्ठा है अंधे स्वार्थ की ,
निरर्थक और अनर्गल वाद-विवादों की !
कदाचित अब तो यही सब बिकता है ,
और जो बिकता है वही परोसा जाता है !
कौन जाने कब सोचेंगे ये स्वयंभू ,
और धुँधलाती मंज़िलों को ,
तिलिस्मी आइने में तलाशते ,
भुलावों के भँवर में राह भटके ,
अपने प्रारब्ध से बेख़बर ,
अनेक अंतर्विरोधों में घिरे ,
देश के ये हजारों होनहार ,
क्या ऐसे ही बनेगा इस राष्ट्र का भविष्य ,
और होगा नए समाज का निर्माण ?
क्या ऐसे ही बढ़ेगा हमारा गौरव ,
और बनेगी हमारी वैश्विक पहचान ?
क्या ऐसे ही होंगे हम विश्व में अग्रणी ,
और पूर्ण होगा अपेक्षाओं का अरमान ?