देखता हूँ कोलतार पथों से सुसज्जित ,
बहुमंजिली इमारतों के साये में ,
प्राणवान धड़कनों सा धड़कता ,
अपनी आभा चहुँओर बिखेरता ,
अपनी चमक-दमक से इठलाता ,
किसी नवयौवना की तरह सजता-सँवरता ,
पौराणिक कलाकृतियों को ललकारता ,
नई सांस्कृतिक धरोहर की दुंदुभी बजाता ,
एक बड़े भूखण्ड पर अस्तित्व बोध कराता ,
उत्तराधुनिक सभ्यता का उद्घोषक मॉल !
फिर देखता हूँ दमकते वैभव की चकाचौंध ,
आधुनिकता का बोध कराते विशालकाय शो-रूम ,
मनुहार करते जान पड़ते सुसज्जित गलियारे ,
पश्चिमी सभ्यता को भी पराभूत करते ,
न जाने कितने ही आकर्षण के दृष्टव्य !
कालेज और विश्वविद्यालय की वितृष्णा दर्शाती ,
अनेकों चहकती-विचरती तितलियाँ ,
उन पर मँडराते न जाने कितने भौंरे ,
वर्तमान में जीने का उद्घोष करते युवा-स्वप्न ,
नई जीवंतता को हसरतों से देखते कुछ बीते पल !
यहीं कुछ दूरी पर फिर देखता हूँ कुछ अँधियारे ,
खुशरंग स्वप्न की आस ढूँढ़ते मलिन चहरे ,
बचपन और यौवन की अटखेलियों से अनजान ,
नियति के प्रारब्ध में जीते कुहासे !
जहाँ न तो कोई मनुहार है और ना ही कोई उद्घोष ,
न तो कोई उत्ताल तरंग है और ना ही कोई स्वर-लहरी ,
निष्प्राण सी अपनी ही व्यथा में रिसती बुझी सी साँसें ,
यहाँ हौले-हौले रोज़ धड़कती सी जान पड़ती हैं ,
यथार्थ की कठोर चट्टान पर नियति का भार ढोती ,
किसी अभिशप्त सी ज़िन्दगी की तरह !
सोचता हूँ कब आएगा वो दिन ,
जब इन अँधियारों को भी उजाला नसीब होगा ,
जब ये कुहासे किसी आभामयी प्रकाशपुंज से छटेंगे ,
जब ये रिसती साँसें भी यौवन की धड़कनों को चूमेंगी ,
जब ये मलिन बचपन किलकारी मारेगा ,
जब यहाँ भी मनुहार करती उत्ताल तरंगें होंगी ,
जब यहाँ भी जीवन्तता की स्वर-लहरी होगी ,
जब यहाँ भी सपनों को उनका आसमाँ मिलेगा !
इसी मोड़ पर ठगा सा सोचता हूँ मैं ,
यहाँ कब नियति अपनी करवट बदलेगी !
यहाँ कैसे नियति अपनी करवट बदलेगी !!