बचपन कभी किसी का दामन नहीं छोड़ना चाहता। वह तो निश्छल और निर्मल होता है। उसमें कोई छल-कपट नहीं होता। वह तो किसी स्रोतस्विनी की जलधारा सा प्रवाहमान कोई देवत्व है जिसमें उषा की लालिमा की पवित्रता और निशा की चाँदनी की मनोरमता की समरसता होती है। हमीं उसे नकारने का प्रयास करते रहते हैं। अपनी उपलब्धियों और परिलब्धियों में हमारा यह बचपन धीरे-धीरे कहीं हमसे बिछुड़ता जाता है। जब हम फिर से अपने करीब आते हैं तो यह बचपन फिर से हमें थामना आरम्भ कर देता है। मनुष्य तभी तक जीवन्त रहता है , जब तक उसमें शिशु जीवित रहता है। बुढ़ापे में आकर हम फिर से बच्चे बन जाते हैं तो यह इसी जीवनक्रम का ही स्वाभाविक स्वरूप है।
सच कहा है आपने।
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