किनारे सदियों से रहते हैं शान्त , अविचल , बेबस ,
देखते रहते हैं गतिमान जल-धारा का अविरल प्रवाह !
सुनते रहते हैं किसी कालजयी विवशता के वशीभूत ,
अजन्मी उच्छृंखल लहरों के वेगयुक्त भीषण निनाद !
किनारे कदाचित भिज्ञ हैं अपनी इस शापित नियति से ,
नहीं कहते कुछ भी इस मनचली-इठलाती जल-धारा से !
जो इसके अंतस की गहराई में पलते दुःख से अनजान ,
अपनी अठखेलियों से हर रोज़ करती है भीषण निनाद !
पल-भर के संयोग के बाद दूर जाती इस जल-धारा को ,
किनारों की फटी आँखों से की गयी मौन-आर्त पुकार ,
बस थम जाती है कुहासे की किसी बेकसी में उलझकर ,
थामे किसी बूढ़े माझी की तरह प्रवंचनाओं की पतवार !
अनन्त काल से निरंतर चल रहा है यह दारुण विछोह ,
मानो करना चाहता हो मानवता से यह शाश्वत उद्घोष ,
जड़ता और स्थिरता में भले ही हो कितना भी आकर्षण ,
जीवन-प्रवाह नहीं कर सकता अंगीकार उनका उत्कर्षण !!