पथिक ! कैसा अद्भुत है जीवन ,
किनारे देते हैं अस्तित्व जलधारा को ,
इन्हीं की गोद में खेलती , कूदती , मचलती ,
और इन्हीं से पोषित और पल्लवित होकर ,
पाती है जलधारा अपनी पहचान ,
अपने गन्तव्य की अपरिचित दिशा ,
अपनी जिजीविषा और संकल्प ,
अपना निरन्तर मनोरम प्रवाह !
पथिक ! पर ये कैसी विडम्बना ?
किनारों से यूँ ही किनारा करके ,
अपने अभ्युदय का सर्वस्व भुलाकर ,
चल देती है यह जलधारा ,
आगे बहुत आगे अपने गंतव्य को ,
सँजोती हुई अपने स्वप्नों की ,
दृष्टि को भेदती परिधि !
पीछे रह जाते हैं किनारे ,
कहीं ढूँढते उस जलधारा को ,
जडवत् से स्थिर और मौन ,
अपनी नियति की अभेद्य परिणति में !
कहाँ सुन पाती है जलधारा उनकी पुकार ,
निःशब्द होते जाते उनके स्वर ,
कहाँ रुक पाती है घड़ीभर भी उनके साथ !
अपने अनवरत प्रवाह की उड़ान में ,
मानो गन्तव्य की ओर प्रयाण है ,
जलधारा का चिर प्रारब्ध !
बहुत खूब ह
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