चेतना-शून्य आँधियाँ :

आँधियाँ अक्सर मदहोश होती हैं , उजाड़ देती हैं अनगिनत गुलशन , तोड़ देती हैं अनगिनत सपने , मिटा जाती हैं सृजन की लकीरें , बहा ले जाती हैं भविष्य की आशाएं , नहीं देखती झूठ और फ़रेब , नहीं जानतीं सत्य की सीमाएं , अनजान रहती हैं अंधी स्वार्थपरता से , बेख़बर रहती हैं … Continue reading चेतना-शून्य आँधियाँ :

वीरान हवेली :

जहाँ कभी रोशनी का परचम था , वहाँ धड़कनों में सुलगते हैं रूह के ग़म , अँधेरों के किरदार अक्सर खेलते हैं , रात के रूखे-सूखे पत्तों से , बेनूर हसरतें पहरा देती हैं , अश्कों के रिसते कतरों का , कुछ बासी लम्हे रुककर देखते हैं , जिस्मों के ईंधन में तपे रिश्तों को … Continue reading वीरान हवेली :

अश्कों की चादर में वक़्त :

आज फिर चाँद की पेशानी पे सिलवटें हैं , आज फिर लपटों में चाँदनी जली होगी , वक़्त किसी पेड़ के नीचे बैठा , अश्कों की चादर में सिमटा होगा , किसी तल-खोह-अँधेरे में अंधा कुआँ , अपनी बेबसी पर सिसक रहा होगा , रात पथराई आँखों में नमी तलाशती , गूँगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू … Continue reading अश्कों की चादर में वक़्त :

नया दौर :

कभी पगडंडी भी अक्सर हालेदिल पूछा करती थी , अब तो  ये सड़क  बेरुख़ी से नज़र चुराती रहती है ! कभी वो कुआँ रोज़  पानी के लिए बुलावा देता था , अब तो पानी की ख़ातिर ज़िद्दोजहद लगी रहती है ! कभी बावड़ी और तालाबों  का  ख़ुशनुमा मंज़र था , अब पथरीली इमारतों में  साँसों … Continue reading नया दौर :

वक़्त का सन्देश :

वक़्त किसी पेड़ की शाख पर , फड़फड़ाता है आर्त-स्वर में , किसी चोट खाये पंछी की तरह , समेटता है कुछ बासी से लम्हे , कुछ अनकही अनसुनी बातें , बुदबुदाता है हौले से , नीरवता के आँगन में तैरती , कुछ सिमटी हुई ख़ामोशियों से , चाहता है कुछ बताना , अपनी ही … Continue reading वक़्त का सन्देश :

अज़ीब क़ब्रिस्तान :

अज़ीब किस्म का क़ब्रिस्तान है ये , यहाँ दफ़्न हैं न जाने कितनी तारीख़ों के जिस्म , जिस्म अनगिनत बनी-बिगड़ी रियासतों के , अनगिनत शानो-शौक़त की दास्तानों के , अनगिनत बेबसी में लिपटी रुसवाइयों के , अनगिनत बार कुचली गयी इंसानियत के , और फिर सभ्यता के नाम पर , पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों के विनाश … Continue reading अज़ीब क़ब्रिस्तान :

दिलकशी का मंज़र :

अज़ीब सा मंज़र था वो , जो घुल गया उस दरिया में , जो मेरे क़रीब बहता था , जिसमें कभी सहर आती थी , होठों की सिहरन की तरह , और शाम उतरती थी , आँखों की नशीली पलकों की तरह ! खोल देती थी न जाने कितनी सिलवटें , और बुन देती थी … Continue reading दिलकशी का मंज़र :

ग़ुमनाम किरदार :

कभी वो उन घने  दरख़्तों के  अज़ीम  आशियाने थे , जिन्हें दफ़्न  करके ये  पत्थरों  का शहर  बसा होगा ! ये दरीचे , ये मकान , ये बला की इमारतें क्या जानें , इनकी ख़ातिर कितनी सिसकियों ने दम तोड़ा होगा !!

उजड़ी बस्ती :

कुछ अर्सा को गया उस बस्ती को जले हुए , अब किसी भी घर में वहाँ धुँआ नहीं होता ! आँखों की नमी भी शायद सूख गयी है वहाँ , अब किसी दर पे मातम का शोर नहीं होता ! गुलशन जो ख़ुशनुमा था पल में उजड़ गया , उसे फिर से सँवारने का हौसला … Continue reading उजड़ी बस्ती :

लॉकडाउन :

अज़ीब सन्नाटा सा पसरा है इस शहर में , इसकी गलियों में वीरानी सी छाई है , सहर होती है तो अब सुनाई देती है , चिड़ियों की दिलक़श चहचहाहट , पास ही बेख़ौफ झूमते दरख़्तों के , हवाओं के झोंकों से सुर-ताल मिलाते , अनगिनत पत्तों की फड़फड़ाहट , जो कभी खो जाती थी … Continue reading लॉकडाउन :