जानने बूझने से अब यहाँ कुछ नहीं होता ,
आदमी ज़मीं की तरह बावफ़ा नहीं होता !
चाहे जितनी सावन की बरसातें ले आओ ,
गर्म रेत पर बूँदों का कोई निशाँ नहीं होता !
व्यर्थ है बस्ती उजाड़ने वालों को समझाना ,
ज़िंदा लाशों में सृजन का माद्दा नहीं होता !
जो दिन-रात डूबे हैं अपने मद के प्यालों में ,
उनसे किसी ख़िदमत का आसरा नहीं होता !
चाहतों के चाहे जितने आशियाँ बना डालो ,
मिट्टी के घरोंदों का कोई सिला नहीं होता !
लिखनी ही थी तो लिखते दिलों पे इबारतें ,
पानी पे लकीरें खींचने से कुछ नहीं होता !!