समय भी बैठ गया है थककर ,
किसी वृक्ष की टहनी पर ,
कुछ कम्पित से पत्तों की चादर ओढ़ ,
देख रहा है विकरालता बेबस होकर ,
फ़ासलों की तहों में निरन्तर !
अनभिज्ञ नहीं है इस सत्य से ,
जब रुक जाता है प्रवाह ,
तो थरथरा जाती है समूची सृष्टि ,
कौंधने लगते हैं भीषण अंगार ,
क्षोभ से भरे क्षितिज-अतल में ,
डूबने लगती है मानवता ,
नीरवता के पसरे शून्य-तल में !
देख रहा है स्तब्ध हो विस्मय से ,
एक ओर जीवन के लिए द्वंद्व करते ,
इंसानियत के अगणित भगीरथ प्रयास ,
दूसरी ओर मानवता को शर्मसार करते ,
चन्द विक्षिप्त मस्तिष्कों के राक्षसी परिहास ,
जिन्होंने फोड़ दिया है बुद्धि का भाल ,
तोड़ दी हैं मर्यादा की समस्त सीमाएं ,
कर दिया है मलिन जीवनादर्श ,
अपने कुटिल राक्षसी उद्देश्यों से !
पर समय को प्रवाह पाना ही होगा ,
सृष्टि को नवजीवन देना ही ही होगा ,
बिना गतिशीलता जीवन्तता नहीं ,
और बिना जिजीविषा जीवन्तता नहीं ,
समय को भी समझना होगा ,
बिना सृष्टि वो भी है अस्तित्वहीन ,
वैसे भी मरघटों में सुवास नहीं ,
पसरी रहती हैं क्षोभक लहरियाँ ,
मृतात्माओं की उदास तान-धुन की ,
इसलिए हे ठहरे हुए समय !
समझो वर्त्तमान की दारुण व्यथा ,
त्याग दो अपनी जड़ीभूत अवचेतना ,
ओढ़ लो गतिशीलता का बाना ,
दे दो कराहती सृष्टि को नवचेतना !!

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