जहाँ कभी रोशनी का परचम था ,
वहाँ धड़कनों में सुलगते हैं रूह के ग़म ,
अँधेरों के किरदार अक्सर खेलते हैं ,
रात के रूखे-सूखे पत्तों से ,
बेनूर हसरतें पहरा देती हैं ,
अश्कों के रिसते कतरों का ,
कुछ बासी लम्हे रुककर देखते हैं ,
जिस्मों के ईंधन में तपे रिश्तों को ,
चाँद बादलों से झाँककर ,
कभी-कभी रोशन कर देता है ,
उस चरमराती चहारदीवारी को ,
माज़ी रूबरू दिखाई देता है ,
उस वीरान सी हवेली में !