अज़ीब सन्नाटा सा पसरा है इस शहर में ,
इसकी गलियों में वीरानी सी छाई है ,
सहर होती है तो अब सुनाई देती है ,
चिड़ियों की दिलक़श चहचहाहट ,
पास ही बेख़ौफ झूमते दरख़्तों के ,
हवाओं के झोंकों से सुर-ताल मिलाते ,
अनगिनत पत्तों की फड़फड़ाहट ,
जो कभी खो जाती थी ,
लोगों के शोरगुल में !
दूधवाला भी आता है दबे पाँव ,
पता ही नहीं चलता ,
कब डाल जाता है अख़बार वाला ,
हर रोज़ अख़बार ,
वो जो आती थी बस ,
बच्चों को स्कूल ले जाने को ,
जिसके हॉर्न देते ही ,
मचती थी बच्चों की भगदड़ ,
और मम्मी-पापा की बच्चों को ,
बस में ठीक से बिठाने की कशमकश ,
अब लगती हैं गए वक़्त की बातों सी !
नुक्कड़ पर चाय पीने का मज़ा ,
वो कुछ देर पॉलिटिक्स पर ज़ोर आजमाइश ,
वो सबके हालचाल पूछने का मंज़र ,
अब कहीं हो गया है ग़ुम !
ख़ौफ़ज़दा हैं लोग अपने बन्द घर में ,
छत पर या बालकनी में आकर ,
अक्सर दूर से ही कभी-कभी ,
देख लेते हैं एक-दूसरे को !
अब कोई बाई नहीं आती ,
कामवाली भी नहीं आती ,
माली भी चला गया है घर ,
टी.वी. सीरियल और पिक्चर ,
देख-देख के अघा गए हैं लोग !
बन आयी है घर की मालकिनों की ,
दुर्दशा है बेचारे पतियों की ,
बच्चों को पढ़ाने से लेकर ,
झाड़ू-पोंछा और बर्तन धोने तक ,
करना पड़ रहा है सारा काम ,
दो वक़्त की रोटी की ख़ातिर ,
बिना किये पल-भर भी आराम !
अब दिखते हैं सड़क पर ,
बस ख़ाकी वर्दी में चन्द लोग ,
कभी-कभी जो माइक पर ,
करते भी हैं कुछ ऐलान ,
कुछ साफ़ सुनाई नहीं देती ,
जिनकी दबे सुर की आवाज़ ,
पर लोग लगा लेते हैं अनुमान ,
शायद कर रहे हों आह्वान ,
सबको घर में बंद रहने का ,
यही आलम है अब इस शहर का !
फिर भी आशाओं से भरे हैं लोग ,
मन की गहराइयों से भरोसा है उन्हें ,
भारत के उस मसीहा से ,
जो दिन-रात एक किये है ,
अपना सुख-चैन खोकर ,
माँ दुर्गा का व्रत रखकर ,
सारी कायनात को बचाने को,
कोरोना की भयावह आपदा से !

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