अज़ीब सा मंज़र था वो ,
जो घुल गया उस दरिया में ,
जो मेरे क़रीब बहता था ,
जिसमें कभी सहर आती थी ,
होठों की सिहरन की तरह ,
और शाम उतरती थी ,
आँखों की नशीली पलकों की तरह !
खोल देती थी न जाने कितनी सिलवटें ,
और बुन देती थी न जाने कितने सपने ,
फिर खिल जाते थे चाँद के आँगन में ,
हसीन से खुशरंग गुलाब ,
जिनकी एक-एक पंखुड़ी चुनकर ,
सजती थी तमन्नाओं की सेज ,
महक उठता था वासंती उपवन ,
इठलाती थी ताराकिणी निशा ,
धवल चूनर में लिपटकर ,
दूर बिखर जाती थी चाँदनी ,
किसी अल्हड़ की तरह छिटककर ,
जिस्मों के ईंधन से जलते थे ,
प्रेमातुर दो दिए रातभर ,
अज़ीब था वो दिलकशी का मंज़र !