धूप रोज़ आसमाँ से मेरे आँगन में उतर  आती है ,
जाने कितनी ख़्वाहिशों की इबारत लिख जाती है !
जाने क्यूँ उसने मुझे अपना मसीहा बना लिया है ,
मेरे दरो-दीवार पे उल्फ़त के निशाँ छोड़ जाती है !
रोज़  देखता हूँ  उसे पास  आते और दूर जाते हुए ,
वो चुलबुली सी फिर आने का वादा किये जाती है !
वक़्त बदला, ऋतुएँ बदलीं,ज़माना भी बदल गया ,
वो उसी सुनहरे परिधान में लजाती चली जाती है !
चाहता हूँ  अक्सर पास  जाके  उसे कुछ देर छू लूँ ,
वो मुझे ख़्वाबों के समन्दर में तन्हा छोड़ जाती है !
धूप रोज़ आसमाँ से  मेरे आँगन में  उतर आती है ,
जाने कितनी  ख़्वाहिशों की इबारत लिख जाती है !

 

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