देखता हूँ अनेकानेक चेहरे ,
सभी में अपने ज्ञान का भ्रांत-तिलिस्म ,
अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के भँवर ,
उनमें डूबा हुआ स्वनिर्मित अर्द्ध-सत्य ,
स्वयं को बुनता ह्रदय-तरंगों का आवेग ,
स्वयं को सही ठहराने का उद्रेक ,
श्रेष्ठता को डुबोती विध्वंसक चेष्टाएं ,
आत्मा की बलि देती अनगिनत आकांक्षायें ,
इनके वशीभूत न जाने कितने प्रयाण ,
नभ छू लेने की अंधी ललक ,
शिखर पर दिखने का राक्षसी उद्भास !
फिट ढूँढ़ता हूँ कहाँ हैं आत्मा ,
कहाँ खो गयी है अंतश्चेतना ,
कहाँ छूट गया है राष्ट्र ,
कहाँ धू-धूकर जल रहे हैं ,
संवेदनाओं के अग्नि-कुंड ,
कहाँ गहरी परतों में दफ़्न हो रही हैं ,
नवनिर्माण की संचेतनायें ,
कहाँ से निर्बाध उठ रहा है ,
ज़िंदा जलती लाशों का घनघोर धुआँ ,
जिसमें हो गया है कहीं ओझल ,
सकारात्मक जिजीविषा का परिदृश्य !
इन प्रश्नों की कोई थाह नहीं ,
पर विराम या निषेध कोई हल नहीं ,
राह कठिन है पर असाध्य नहीं ,
देखता हूँ अपेक्षाओं की गठरी बांधे
अवचेतना में घिरे राष्ट्र को ,
जो देख रहा है विश्वास की आँखों से ,
अपने भविष्य के जीवन्त सपने ,
पुकार रहा है थामकर बेचैन साँसों को ,
सँजोकर वेदना-तल से आशाओं को ,
पाषाणी चुनौतियों से द्वंद्व करने को !
पर क्या हम स्वयं राष्ट्र नहीं ?
क्या यह चुनौती हमारी नहीं ?
क्या यह द्वंद्व हमारा नहीं ?