आज फिर चाँद की पेशानी पे सिलवटें हैं ,
आज फिर लपटों में चाँदनी जली होगी ,
वक़्त किसी पेड़ के नीचे बैठा ,
अश्कों की चादर में सिमटा होगा ,
किसी तल-खोह-अँधेरे में अंधा कुआँ ,
अपनी बेबसी पर सिसक रहा होगा ,
रात पथराई आँखों में नमी तलाशती ,
गूँगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू कर रही होगी ,
दूर कहीं खुले आसमाँ के तले ,
हैवानियत के नशीले नेज़े से ,
फिर इंसानियत बेआबरू हुई होगी !
आज फिर चाँद की पेशानी पे सिलवटें हैं ,
आज फिर लपटों में चाँदनी जली होगी !!