दूर कहीं पर्वतीय अंचल में ,
किसी श्रावणी साँझ में ,
जब रुपहली चाँदनी धीरे-धीरे ,
समेटती है पर्वत शिलाओं को ,
अपने मधुरिम आगोश में ,
और लौटता है जीवन ,
अपने-अपने धरौंदों में ,
बहती हुई हवाओं के ,
मदमत्त झोंकों से अनजान ,
दिन-रात के झंझावात से दूर ,
किसी पर्वतीय नदी के प्रवाह से ,
तराशे हुए एक पत्थर पर ,
जल-प्रवाह से बेखबर ,
चौंच-चौंच में निबद्ध पक्षी-युग्म ,
मानो करता हो उद्घोष ,
जीवन का माधुर्य और सरसता ,
सुकुमारता और सजीवता ,
अन्यत्र कहीं नहीं ,
केवल और केवल यहीं है !!