पथिक ! ज़रा ग़ौर से देखो ,
निःशब्द , निस्तेज किन्तु पाषाणी ,
विशाल चट्टानों को चीरकर ,
इनके अन्तस् की तरलता ,
नियति के निरंतर भयंकर दबाब ,
उपेक्षा के स्फोटक आवेग ,
और पर्त-दर-पर्त दबी हुई ,
प्रतिशोध की धधकती ज्वाला लिए ,
उस ज्वालामुखी के मुख से ,
लावा के रूप में उत्सर्जित हो ,
कर रही है विनाशलीला !
पर तुम क्यों हो अब भयाक्रान्त ?
क्यों हो रहे अब इतने अशान्त ?
मन में पाले ढेरों संताप ,
क्यों कह रहे इसे नियति का अभिशाप ?
छटपटाहट छोड़ सँभालो ख़ुद को ,
पूर्वाग्रह छोड़ खँगालो ख़ुद को ,
तुम्हारे ही अभिमानी कृत्यों ने ,
सृष्टि की सुकुमारता को लील ,
कर दिया विवश पलायन को ,
मत दो अब तो ख़ुद को धोखा ,
स्वीकार करो कटु सत्य कथन ,
तुम्हारे प्रमाद के कारण ही ,
इस तिरस्कृत पाषाणी गर्भ से ,
फूटा प्रलयंकारी उत्सर्जन !