अपलक निरन्तर देखता हूँ ,
दूर किसी विशाल जलाशय में ,
गन्तव्य तलाशती कोई नाव ,
प्रश्रय के किनारों से दूर मझधार में ,
उफनती लहरों को जिजीविषा से भेदती ,
बीचियों को अपने प्रयास से काटती ,
कभी झंझावातों के भँवर से आशंकित हो ,
किसी माझी को तलाशती ,
कभी-कभी वेगयुक्त तीव्र झोकों में ,
अपने अस्तित्व के लिए जूझती ,
दिवस के चहुँओर कौतूहल ,
और निशा की चिर नीरवता ,
दोनों में कभी डगमगाती ,
कभी फिर स्थिर होती ,
दूर बहुत दूर अनजान से ,
किसी प्रणेता की तलाश में ,
जाने कौनसे स्वप्न बुनती ,
हौले-हौले आगे बढ़ती है ,
जिंदगी का पर्याय बनकर !
देखता हूँ बस ऐसे ही ,
विशाल जलाशय की अजस्र धारा में ,
दूर बहुत दूर विचरती अकेली नाव !