देश में धूम थी दशहरा-पर्व की ,
असंख्य रावण के पुतले ,
राजनेताओं के तीर खाकर ,
आग की भयंकर लपटों में ,
जल रहे थे धूँ-धूँ कर !
राजनेताओं की आढ़ में ,
सहमे से थे अभिनेता राम ,
लेकिन रावण कर रहा था ,
गगनभेदी क्रूर अट्टहास !
खुद ही सुना रहा था सबको ,
अपने अमरत्व की यश-गाथा ,
कि मैंने त्रेता युग में ,
मर्यादापुरुषोत्तम राम से ,
खाया था नाभि में बाण ,
तब भी मैं मरा नहीं था ,
नर में नारायण-रूप धरे ,
राम के हाथों हुआ था कीर्तिशेष !
पर जब मैंने लिया पुनर्जन्म ,
कलयुग में इस धरती पर ,
तब मर्यादाएं हो चुकी थीं तार-तार ,
विलुप्त हो गया था राम-स्वरूप ,
राम की दुहाई देने वाले ,
मेरे ही अनेकानेक रूपों में ,
सर्वत्र कर रहे थे स्वेच्छाचार !
आश्चर्य था कि घर-घर में ,
कालखण्ड में अजन्मा हो ,
मानो मैं ही ले रहा था पुनर्जन्म !
ये मेरे ही रूप थे ,
जो दशहरा-पर्व पर ,
चला रहे थे मुझ पर बाण ,
जानते हुए भी यह ध्रुव-सत्य ,
कोई मर्यादापुरुषोत्तम ही कर सकता है ,
इस काल में भी मेरा वध ,
अपने ही रूपों से भला कहाँ मरूंगा मैं ,
इसीलिए दिक् -दिगन्त में ,
कर रहा हूँ विजय-निनाद ,
समझा रहा हूँ समूची सृष्टि को ,
ठीक से देखो रावण मरा नहीं ,
कलयुग में रावण मरा नहीं करते !