उसे यक़ीन था ये क़ातिलों की महफ़िल थी ,
कौनसी मुराद लिए वो फिर भी चला आया !
वो वज़्म तो उसे गुनहग़ार ही ठहरा रही थी ,
कौनसी आरज़ू लिए वो फिर भी चला आया।
लोग तो उसकी बर्बादी का जश्न मना रहे थे ,
कौनसी मन्नतें लिए वो फिर भी चला आया।
वो शहर तो उसकी दुश्वारियों की वज़ह था ,
कौनसी सदायें लिए वो फिर भी चला आया।
ज़िंदगी हर रोज़ उसका फसाना बना रही थी ,
कौनसे जज़्बात लिए वो फिर भी चला आया !