मेघ ! कितने रूपों में तुम ,
बँटे कितने खानों में तुम ,
किसी प्रेमी का दूत बनकर ,
प्रेयसी का मनुहार बनकर !
सुकुमार की उमंग बनकर ,
बचपन की मस्ती बनकर ,
यौवन का प्रमाद बनकर ,
मतवाले की उड़ान बनकर !
बिरहन की तपन बनकर ,
तड़प की प्यास बनकर ,
प्यास की तृप्ति बनकर ,
सृजन की आशा बनकर !
निदाघ की छाँव बनकर !
व्योम का श्रृंगार बनकर ,
सावन की फुहा र बनकर ,
प्रणय की रिमझिम बनकर !
कल्पना की उड़ान बनकर ,
कवि की साधना बनकर ,
शायर की आवारगी बनकर,
सृष्टि का जीवन बनकर !
फिर रौद्र रूप से करते तुम ,
कैसी विकराल विनाशलीला ,
घनघोर वृष्टि से करते तुम,
जल-प्लावन की क्रूर लीला !
पल में उजाड़ते बस्तियाँ ,
छीनकर आश्रय जीवन का,
लीलते जाने कितने जीवन ,
करके संहार मानवता का !
तीव्र विद्युल्लता से रचते तुम ,
भीषण निनाद की भयावहता ,
मानो आतुर हो मिटाने को ,
सृष्टि की अनुपम सुंदरता !
मत बनो तुम इतने निष्ठुर ,
छोड़ दो बाना संहारक का ,
अपनाकर चिर प्रेमी स्वरूप ,
कल्याण करो मानवता का !
बेहतरीन कविता प्रत्येक रूप को दर्शाती।👌👌
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