१४ फरवरी , २०१९ से १९ फरवरी , २०१९ तक मुझे अंडमान द्वीपों की यात्रा का सुअवसर मिला। मेरी पत्नी श्रीमती निधि कुमार भी मेरे साथ थीं। इस यात्रा के दौरान हमें पोर्ट ब्लेयर की विश्व विख्यात ‘सेल्युलर जेल’ को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां की इस पवित्र भूमि का हमें दिन में तथा रात्रि में होने वाले लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम के समय देखने और जानने का सुअवसर मिला। देशप्रेमियों के लिए यह सेल्युलर जेल किसी तीर्थस्थल से कम नहीं। इसमें प्रवेश करते ही मानो यहाँ का पीपल का पेड़ , यहां की दीवारें , यहाँ की काल कोठरियाँ , यहाँ का फाँसी गृह , यहाँ का कंट्रोल टॉवर तथा उसमें लगा घंटा , यहाँ का वो स्थल जहाँ स्वतंत्रता सेनानियों को यातनाएं दी जाती थी , सभी अचानक प्रत्येक आगंतुक से संवाद करने लगते हैं। मानो अपनी गाथा दोहराते हों। वो आजादी के मतवाले भी मानो मौन उद्बोधन करते हों जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए इस जेल की चहारदीवारी में बर्बरतापूर्ण यातनाएं सहते-सहते अपने प्राण त्याग दिए , जो इस जेल के फाँसी-घर में गले में फाँसी का फंदा डाले हँसते-हँसते वन्दे मातरम कहते हुए इस देश की स्वतंत्रता की आस लिए झूल गए।

अंग्रेज सरकार ने अपनी बर्बरतापूर्ण एवं दमनकारी मनोवृत्तियों को मूर्तरूप देने के उद्देश्य से ८ दिसम्बर , १८५७ को अण्डमान द्वीप का पहला सर्वेक्षण कराया। इस सर्वेक्षण समिति के सदस्य डा० एफ. जे. माउट , डा० जी. आर. प्लेफेयर तथा लेफ्टिनेंट जे. एस. हिटकॉट थे। इनकी सर्वेक्षण रिपोर्ट १५ जनवरी , १८५८ को स्वीकार कर ली गयी।इसके तुरंत बाद २२ जनवरी १८५८ को कैप्टन एच. मान ने औपचारिक रूप से द्वीपों को अंग्रेजी साम्राज्य में समाहित कर लिया। उन्होंने पोर्ट ब्लेयर में यूनियन जैक फहराया और यहीं से दमन कार्य का आरम्भ हो गया।

वास्तव में ‘ काला पानी ‘ कोई काले रंग के पानी को अभिव्यक्त नहीं करता। काला पानी वस्तुतः काल अर्थात समय या मृत्यु और पानी ‘जल ‘ को निरूपित करते हैं। यह ऐसा स्थल था जो चारों ओर हजारों मीलों तक समुद्री जल से घिरा था और यहां आकर मृत्यु तक बाहर निकलने की कोई संभावना नहीं थी। यहाँ कैदियों को लाने का उद्देश्य उन्हें देश के मुख्य भाग से दूर कर देना था ताकि वे देश की किसी भी गतिविधि का कभी भी हिस्सा न बन सकें। इसी कारण यहाँ के कैदियों की सजा को काले पानी की सजा से निरूपित किया जाता था।

१० मार्च , १८५८ को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के २०० बन्दी पहले जत्थे के रूप में ‘ सेमी मिराय मिस फ्रीगेट ‘ में यहाँ लाये गए। इन्हें डा० जे. पी. वाकर के अमानवीय और निर्दयतापूर्ण नियंत्रण में कठोर कार्य करने के लिए विवश किया गया। पानी के अभाव में भी इन कैदियों को ‘चाथम ‘ द्वीप तथा रॉस द्वीप को इकसार करने तथा इन द्वीपों की सफाई करने का कार्य सौंपा गया। इस जत्थे में ६० नौसैनिक , एक ओवरसियर तथा दो भारतीय डॉक्टर भी लाये गए थे। इस प्रकार ‘ पीनल सैटिलमेंट ‘ का कार्य आरम्भ हो गया। इसके बाद तीन जहाज़ों में और कैदियों को लेकर लाया गया। फिर जहाज ‘ रोमन एम्पायर ‘ १७१ कैदियों को लेकर , जहाज ‘ डलहौजी ‘ १४० कैदियों को लेकर तथा जहाज ‘ एडवर्ड ‘ १३० कैदियों को लेकर आये। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अधिकाँश कैदी कवि , बुद्धिजीवी , लेखक , विचारक , राज घराने के , आदि थे। इनसे पेड़ों को कटवाने , जंगलों को साफ कराने , पत्थर को कुटवाने और रास्ता बनाने जैसे कार्य कठोरता और निर्दयता से कराये जाते थे। इन्हें रात में हथकड़ी और बेड़ियाँ डालकर लोहे की चेन से बाँधकर एक घेरे में सुला दिया जाता था। प्रतिदिन एक आना-नौ पाई भोजन तथा वस्त्र के लिए दिया जाता था। इन सभी कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय तथा पाशविक व्यवहार ने काला पानी के सफ़ों पर यातनाओं के नए-नए अध्यायों को लिखना आरम्भ कर दिया।

इन कैदियों का आज कोई लेखा जोखा नहीं मिलता है। कुछ बहाबी आंदोलनकारियों के लेखे अवश्य मिलते हैं जिनमें अल्लमा फज़ल हक़ खैरावादी , मौलाना लियाक़त अली , मीर जाफ़र अली आदि के नाम मिलते हैं लेकिन ये मुट्ठी भर नाम हैं , अधिकांश ने तो बेनामी के अँधियारों में ही इन्हीं द्वीपों पर यातनाएं सहते-सहते ही अपने प्राण त्याग दिए। सेल्युलर जेल के प्रांगण में आज इन क्रांतिवीरों की याद में एक स्तम्भ निर्मित है जो इनके अतुलनीय बलिदान की याद बरबस ही दिलाता है।

ब्रिटिश हुकूमत ने स्वतंत्रता की जिस मशाल को राख करने का पाशविक प्रयास किया था , वो सफल नहीं हो सका। स्वतंत्रता की चिंगारी धीरे-धीर सुलगती रही। वर्ष १९०५ के बंगाल के विभाजन ने इसे और भी हवा दे दी। ‘बम-संस्कृति ‘ का भारत के क्रांतिवीरों में विकास हो चुका था। खुदीराम बोस को फांसी दे दी गयी थी और वारीन्द्र तथा उल्लासकर को बेड़ियों में जकड़कर काला पानी की सजा दी गयी।

वर्ष १८९० में सर चार्ल्स जे. लायल और सर ए. एस. लेथब्रिज पोर्ट ब्लेयर आये। उन्होने यहां जेल के निर्माण को औपचारिक अनुमोदन दे दिया। १३ सितम्बर , १८९३ के आदेश पत्र संख्या ४२३ के अनुसार इस जेल का निर्माण कार्य तुरंत आरम्भ होना था लेकिन यह कार्य १८९६ में आरम्भ हो पाया। लगभग दस वर्ष के निरंतर कार्य के बाद इस जेल का निर्माण कार्य १९०६ में समाप्त हुआ। शीघ्र ही इस जेल की गणना विश्व की सबसे भयावह जेल के रूप में होने लगी। ब्रिटिश सरकार ने इस जेल का उपयोग स्वतंत्रता सेनानियों के मनोबल को तोड़ने , उन्हें एकांत में असह्य यातनाएं देकर घुट-घुटकर मरने और पाशविक तथा बर्बरतापूर्ण व्यवहार से दमनचक्र चलाकर आजादी के इन क्रांतिवीरों की संघर्ष-क्षमता को समाप्त करने के लिए कुटिलता से किया ।

सेल्युलर जेल की भयावहता का अनुमान इसे देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। इसकी कुल ७ भुजाएं थीं जिनमें से आज केवल तीन ही बची हैं। इनमें कुल ६९८ ‘सेल’ अर्थात काल कोठरी थीं । इन ‘सेल’ अर्थात एकांत कमरों के कारण ही इस जेल को सेल्युलर जेल के नाम से जाना जाता है। इसकी पहली भुजा में १०५ काल कोठरियाँ , दूसरी भुजा में १०२ काल कोठरियाँ , तीसरी भुजा में १५० काल कोठरियाँ , चौथी भुजा में ६२ काल कोठरियाँ , पाँचवीं भुजा में ९३ काल कोठरियाँ , छटी भुजा में ६० काल कोठरियाँ तथा सातवीं भुजा में १२६ काल कोठरियाँ थीं। इनकी एक विशेषता यह थी कि यह भुजाएं इस प्रकार निर्मित थीं कि इनमें से किसी भी भुजा के सेल के दरवाजे दूसरी भुजा के सेल के दरवाजों के सामने नहीं खुलते थे जिससे इनकी एकान्तता बनी रह सके और कैदी एक दूसरे को सामने से भी न देख सकें। ये भुजाएं साइकिल के पहिये के आकार में थीं। प्रत्येक सेल को बंद करने के लिए लौह द्वार थे जिनकी साँकल को दरवाजे के पास ही दीवार में पृथक से बंद करने का स्थान बनाकर इन्हें बंद किया जाता था ताकि कैदी इन दरवाजों को किसी भी प्रकार कोई भी प्रयास करके कभी खोल ना पाएं। इनका नियंत्रण भी एक पृथक स्थान से एक लौह-द्वार से किया जाता था। प्रत्येक सेल का आकार १३.६ फीट लम्बाई , ७.६ फीट चौड़ाई तथा १० फीट उँचाई का था। ‘कंट्रोल-टावर ‘ जहाँ से एक ही प्रहरी सभी सातों शाखाओं पर नियंत्रण रखता था , वह आज भी विद्यमान है। कंट्रोल टावर पर २४ सशस्त्र प्रहरी दिन-रात तैनात रहते थे। २१ वार्डन /जमादार २४ घंटे इन बंदियों पर कड़ी नज़र रखते थे। इस जेल के निर्माण की अनुमानित लागत रु० ५,१७,३५२/- थी। बर्बरतापूर्ण मनोवैज्ञानिक यातनाओं को देने की यह षडयंत्रपूर्ण व्यवस्था जहाँ कोई किसी को न देख सके , न ही मिल सके और न ही कोई संपर्क कर सके , इस जेल को और भी भयावह बनाती थी।

इस जेल के निर्माण में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ६०० कैदियों के साथ-साथ कुछ अन्य कैदियों को भी लगाया गया था। उन दिनों कैदियों को वायपर द्वीप , फीनिक्स वे , ब्रिजगंज , डंडस प्वाइंट आदि खुली जेलों में हथकड़ियों और बेड़ियों में रखा जाता था। डंडस प्वाइंट में कैदियों द्वारा ३०,००,००० ईंटें बनायी गयीं थीं जिन्हें जेल के निर्माण में प्रयोग किया गया। जेल के पास ही एक अस्पताल का भी निर्माण किया गया था। इस जेल में घुसते ही दाहिनी ओर हिन्दू और मुसलमान कैदियों के लिए अलग-अलग रसोई बनायी गयी थी। इसके निकट ‘ फाँसी घर ‘ था जिसमें एक साथ तीन कैदियों को फाँसी दी जा सकती थी। इसी फाँसी घर के सामने फाँसी दिए जाने के पूर्व कैदियों के लिए अंतिम इबादत/पूजा करने हेतु छोटा सा मचान बना था। इन सभी को आज भी देखा जा सकता है। इसके सामने की भुजा के फाँसी घर की ओर के अंतिम चार कमरे ऐसे कैदियों के लिए थे जिन्हें फाँसी दी जानी होती थी। जब किसी कैदी को फाँसी दी जाती थी तो कंट्रोल टॉवर पर लगे घंटे को बजाया जाता था। अँधेरे को चीरती इसकी ध्वनि से इस जेल से बहुत दूर हार्बर पर खड़े जहाज़ों पर भी यह जानकारी हो जाती थी की किसी कैदी को फाँसी दी जा रही है।

फाँसी घर के सामने के दो भुजाओं के बीच प्रांगण में वो स्थान था जहां कोल्हू में जानवरों के स्थान पर कैदियों को जोता जाता था , उनसे नारियल को साफ करके तेल निकालने के लिए कहा जाता था। असंभव मानक रखे जाते थे और काम पूरा न कर पाने पर एक खम्बे से बाँधकर बेंत से जमादार से तब तक पिटवाया जाता था जब तक उस कैदी के शरीर पर खून न छलक आये। इसके बाद उस घायल कैदी को बोरी के वस्त्र पहनाये जाते थे ताकि घावों के छिलने की असह्य पीड़ा हो। यदि ऐसा कैदी आगे फिर अपना मानक पूरा नहीं कर पता था तो उसे उसके शरीर के उसी भाग को फिर से बेंत से पीटा जाता था। शारीरिक पीड़ा के चलते ऐसे कैदी अपना मानक भला कैसे पूरा कर पाते। मानो यह यातनाएं भी इस जेल के क्रूर जेलर डेविड बेरी को कम लगती थीं , इस कारण इनके बार-बार मानक पूरा न करने की दशा में ऐसे कैदियों को बेदर्दी से पीटने के बाद तीन से सात दिन तक इन्हें बेड़ियों में जकड़कर भूखा रखने का आदेश भी वह दिया करता था।

स्वतंत्रता के दीवाने इन कैदियों को कंकड़ मिले आटे की रोटियां खाने को दी जाती थीं। इन्हें दिन में केवल दो बार शौच /लघु शंका के लिए जाने की इज़ाजत थी। इससे अधिक बार जाने के लिए इन्हें जमादार के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता था और अधिकांशतः इन्हें इसकी इज़ाजत नहीं दी जाती थी। रात में इन्हें एक कटोरे के आकार का बर्तन दिया जाता था जिसमें यह प्रातः का शौच करके थे क्योंकि सेल में शौच की अन्य कोई व्यवस्था नहीं थी। इसमें भी नियत से अधिक शौच करने पर कैदियों को दण्डित किया जाता था जिसके डर से दिनभर के बेहद थकावट भरे यातनायुक्त श्रम के बाद भी ये कैदी रात का भोजन कम मात्रा में ही करते थे और इससे क्रूर जेल अधिकारियों का अपेक्षाकृत कम राशन इन कैदियों पर खर्च होता था। कदाचित जानवरों के साथ भी ऐसा व्यवहार कहीं नहीं हुआ होगा , जैसा देश की स्वतंत्रता के इन सेनानियों के साथ इस जेल में किया गया।

उस भयावह एकांत में इन स्वतंत्रता सेनानियों की दर्दनाक चीखें उस नीरवता तो अक्सर तोड़ती थीं जिन्हें इन सेलों में पाशविक ढंग से प्रताड़ित किया जाता था। आज इस जेल की तीसरी मंजिल पर कंट्रोल टॉवर के पास गुमटी के मध्य भाग की दीवारों पर लगे १८ पत्थरों पर देश के विभिन्न भागों से लाये गए उन स्वतंत्रता सेनानियों के नाम अंकित हैं जिन्होंने इस जेल में दर्दनाक यातनाएं झेली किन्तु जिनके मुँह से ‘ भारतमाता की जय ‘ और ‘वन्दे मातरम’ के स्वर ही निकलते रहे। सबसे ज्यादा स्वतंत्रता सेनानी पंजाब तथा बंगाल से यहाँ लाये गए थे। यह बात आश्चर्यचकित कर देती है कि जिन यातनाओं के विषय में सोचकर ही दिल दहल जाता है , उन्हें सहकर भी आजादी के ये अनोखे मतवाले न जाने कौनसी जिजीविषा से , न जाने किस जुनून में पाशविक प्रताड़ना से कराहते हुए भी ‘ भारतमाता की जय ‘ और ‘वन्दे मातरम’ के नारे लगाते रहते थे।

फाँसीघर की ओर ही जेल की दाहिनी तरफ की तीसरी मंजिल की अंतिम कोठरी में वीर सावरकर को रखा गया था। इस कोठरी पर वर्त्तमान में वीर सावरकर का नाम लिखकर इसे चिन्हित किया गया है। इसके अंदर वीर सावरकर के बंदी रूप की तथा एक अन्य फोटो रखी हुई है जहां पर्यटक अपनी श्रृद्धांजली देश के इस महान सपूत को अर्पित करते हैं। वीर सावरकर जिनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था , को दो प्रकरणों में उम्र क़ैद की २५-२५ वर्ष कुल ५० वर्ष की सजा ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दी गयी थी। उन्होंने १९१० से १९२१ तक कुल ११ वर्ष इस जेल की बर्बरतापूर्ण यातनाओं को सहा। जिस भयावह जेल की एकदिन की यातना के वारे में ही सोचकर दिल दहल जाता है , उस जेल में ११ वर्ष तक वीर सावरकर ने पशुओं से भी निम्नतर जीवन को इस देश की स्वतंत्रता के लिए भोगा। इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश का क्या होगा कि ऐसे स्वतंत्रता सेनानी को स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त भी इस देश की सरकार ने १९४८ से १९५१ तक महात्मा गांधी की हत्या के झूठे आरोप में बंदी बनाकर रखा और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही दोषमुक्त होने पर जिसे रिहा किया गया।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि सेल्युलर जेल के यह शहीद आज गुमनामी में खो गए हैं। जो इतिहास हमें इस देश के कर्णधारों ने स्वतंत्रता बाद पढ़ाया है उसमें इनके नाम का और इनकी यश-गाथा का कहीं उल्लेख नहीं है। आज की पीढ़ी इनके वारे में कुछ नहीं जानती। ओछी राजनीति से पोषित इन इतिहासकारों ने इन्हें भुलाने में अशोभनीय भूमिका निभाई है। इस देश के पाठ्यक्रमों में इनका कोई उल्लेख नहीं। इनके योगदान की धरोहर को देश के कोने -कोने तक पहुंचाने का कोई प्रयास नहीं हुआ। केवल पोर्ट ब्लेयर के एयरपोर्ट को आज वीर सावरकर के नाम से जाना जाता है अन्य किसी के नाम पर न तो कोई राष्ट्रीय स्मारक है , न कोई मार्ग है , न कोई संस्थान है , न कोई भवन है। यहाँ तक कि सेल्युलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा भी जननायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के गर्भ से निकली जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद प्रधांनमत्री श्री मोरारजी देसाई द्वारा ११ , फरवरी , १९७९ को स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग साढ़े ३३ वर्ष बाद दिया गया। कभी-कभी यह सोचने पर मन विवश हो जाता है कि क्या कृतज्ञ राष्ट्र की इन आजादी के मतवालों को यही श्रृद्धांजली है ?

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s