इस देश में जब चुनाव आते है तो लगता है यह कुछ चंद लोगों , टी.वी. चैनलों और अनर्गल प्रलाप से अपनी पहचान बनाने में लगे कुछ तथाकथित मनीषियों के लिए उत्सव की तरह आते है। जैसे एक-दो माहों के लिए उन्हें अपना-अपना राग-अलापने का नया मसाला दे जाते है और नए-नए अभिनय-कर्ताओं के नए-नए अभिनयों के लिए नए-नए मंचों के अवसर ले आते है। फिर आरम्भ होता है एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर। परछिद्रानुवर्तन में प्रवीण तथाकथित जन-प्रतिनिधि एक बार फिर भोली-भाली जनता को अपने कुचक्रों में फंसाने को उद्यत दिखाई देने लगते है। अनेक लोगों को इन तथाकथित स्वयम्भूओं की सभाओं में सम्मिलित होने का मानो रोजगार मिल जाता है। कुछ माहों के लिए सारा वातावरण चुनावमय हो जाता है। देश के कल्याण की , देशवासियों के लिए नई -नई योजनाओं की , लुभावने वादों की , आसमान को जमीन पर लाने की घोषणाओं की मानो झड़ी लग जाती है। जिन्हाेंने सत्ता में रहते हुए कुछ नहीं किया और जो सत्ता में रहकर अपने किये वादों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे वो सभी आने वाले समय में चमत्कारिक कार्य करने की कसमें खाते नज़र आने लगते है। सबकुछ ऐसे ही चलता रहता है। जनता के खून-पसीने की कमाई बड़ी-बड़ी जन-सभाओं में होम की जाती है। जिस धन से अभावों की कालिमा में डूबे असंख्य लोगों को मुस्कराहट दी जा सकती है , उसे नेताओं के अनर्गल प्रलाप के लिए पानी की तरह बहाया जाता है। राजनितिक और जातिगत प्रतिबद्धताओं में जकड़े लोग फिर से इन जन-अभिनेताओं के कुचक्र में फँस जाते हैं और इस तरह एक और चुनाव-लीला समाप्त हो जाती है , अगली चुनाव-लीला का वादा करके !
कभी-कभी सोचता हूँ कि उन लोगों का भाग्य कब बदलेगा जो वर्षों से केवल मूल-भूत आवश्यकताओं की इस देश में आस लगाए बैठे हैं। जो कड़ी मेहनत के बाद भी जीविकोपार्जन के लिए अवसरों के लिए तरसते है , जिनका बचपन खिलौनों ,शैतानियों और दुलार के लिए तरसता है , जहां ललनाएँ तन-ढकने के वस्त्र के लिए कितनों का मुख देखती है , जहां मेहनतकश किसान आत्महत्या करता है। जहाँ फुटपाथ आज भी न जाने कितनों का आश्रय-दाता बना हुआ है , जहां यौवन सुकुमारता के स्थान पर तनाव-घिराव-फँसाव के जंजाल में घिरा हुआ है। क्या इनके जीवन को इन तथाकथित जन-स्वयम्भूओं की जन-सभाओं में होने वाले निरर्थक अपव्यय की राशि से सजाया-संवारा नहीं जा सकता है ? या फिर चुनाव जीतने के बाद अगले चुनाव की तैयारी में लगे इन जन-प्रतिनिधियों को दी जाने वाली सांसद-निधि और विधायक-निधि से बेहतर नहीं किया जा सकता है ? कोई कैसे विकास का सार्थक दावा कर सकता है जब इस देश का अधिकाँश जन-जीवन अभावों की मार्मिक गाथा हर रोज दोहराता है। इस देश ने न जाने कितनी योजनाओं का उदात्त गान सुना है लेकिन उनके धरातल पर सबके जीवन में फलीभूत होने का दिन कब आएगा यह देखना अभी भी बाकी है। व्यवस्था में लगी जंग इन्हें सार्थक होने का कब अवसर देती है , यह अभी भी यक्ष-प्रश्न बना हुआ है।
यद्यपि इस देश की राजनीति पराभव की सारी हदें पार कर चुकी है तथापि मैं आशान्वित हूँ और आशान्वित इस देश के जन-मानस से ही हूँ क्योंकि उसका भाग्य वही बदल सकता है , ये तथाकथित राजनीति के व्यवसायी नहीं जो सत्ता के मद में और सत्ता को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने से गुरेज नहीं करते। देश को जागृत होना होगा। इस देश के नागरिकों को अपना भाग्य स्वयं बदलना होगा।