हे मन में उपजी चिन्ता !
तू भाग्य की दुष्ट-रेखा ,
तू मृग-मरीचिका की चल-रेखा ,
तू मरु-प्रदेश की जल-इच्छा ,
तू घिराव-फँसाव-भटकाव की जननी ,
तू निष्ठुरता की दीर्घ-लहरी ,
तू व्यथा तरंगों की धात्री ,
डस लेती जैसे हो सर्पिणी ,
तू मतवाली , तू कालजयी ,
तू तो नितांत स्वेच्छाचारी !
तू नहीं करती कोई विभेद ,
बाँहों में करके सबको कैद ,
रहती बनकर कोई अभिशाप ,
देती रहती अगणित संताप ,
तू काल-चक्र की साम्राज्ञी ,
जैसे हो कोई अविनाशी ,
मौक़ा पाते ही बरबस ही ,
सबके अन्तस् में बस जाती !
तू घूमकेतु सी ह्रदय-तल में ,
होती उदित देने व्यथा ,
रचती नित कोई मर्म-वेदना ,
लिखकर नूतन विकल-गाथा ,
हे सारे अवसादों की जड़ !
रचकर जाने कितने कुचक्र ,
हरकर मन की सुकुमारता ,
देती विषाद की व्याकुलता !
तू सृष्टि की अनचाही कृति ,
तुझसे सहमी है मानवता ,
तू तो भय की दात्री बनकर ,
सदैव दर्शाती विकरालता ,
तेरे अखण्ड साम्राज्य तले ,
तुझसे जन-जन विनती करता ,
अपने भय को करके संकीर्ण ,
दे दे मधुरिम जीवन्तता !