एल्बर्ट स्पेयर ने १९ वीं सदी के भारत के विषय में लिखा था कि इस देश में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , सिख ,पारसी , ईसाई , मुस्लिम तथा अन्य जातियों के लोग तो बसते हैं लेकिन कोई इंडियन कहने वाला दिखाई नहीं देता। यह बात समझी जा सकती है क्योंकि उस समय भारत पराधीन था। विदेशी हुकूमतों ने इस देश की शिक्षा और संस्कृति पर कुठाराघात करके उसे तहस-नहस करने का हर संभव प्रयास किया था। लोग अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे। समूचे देश की एकमेव कल्पना उस समय किसी दिवास्वप्न जैसी थी। लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी इस देश में जातिवाद का ज़हर इसकी जड़ों को और भी खोखला करता चला गया। यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं कि इस देश में आज चुनाव जातिवाद की बिसात पर ही लड़े जाते है और इसी के दृष्टिगत राजनितिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन करते हैं। यह हमारी वर्त्तमान शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी विफलता है , और यह बताता है कि स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद हमने क्या खोया है। जब तथाकथित बुद्धिजीवियों को मैं किसी जाति विशेष का गुणगान करते , या उनके सम्मेलनों में सम्भाषण करते , या अपने तर्क प्रस्तुत करते देखता हूँ तो मेरे मन में बड़ी निराशा होती है और ऐसे बुद्धिजीवियों की अशिक्षा के दुर्भाग्य को मैं इस देश की त्रासदी से अधिक कुछ भी इतर मानने में स्वयं को अक्षम पाता हूँ।

अपने अमेरिका प्रवास के दौरान मैंने पाया कि इस देश में यदि आप किसी से उसकी पहचान जानना चाहें तो उसका केवल एक ही उत्तर होगा और वह होगा “आई एम अमेरिकन ” , लेकिन अगर भारत में आज आप किसी से यह प्रश्न करेंगे तो उसका उत्तर होगा कि वह ब्राह्मण है , या राजपूत है , या वैश्य है , या कायस्थ है , या सिख है , या जाट है या अन्य किसी जाति का है। बात यहीं पर नहीं ठहरती यदि आपने उसे कुछ और कुरेदा तो वह तत्काल अपनी उप-जाति , गोत्र आदि भी बताने लग जाएगा। इस प्रश्न का उत्तर कोई भी व्यक्ति इंडियन या भारतीय होना नहीं देगा। यही इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है और यही इस देश की स्वातत्र्योत्तर त्रासदी भी है। राजनितिक स्वार्थ के लिए सत्तालोलुप राजनेताओं ने हरसंभव प्रयास किया है कि जातिवाद का यह जहर हमारे लहू में तैरता रहे और हम उनकी स्वार्थपूर्ति का साधन बनते रहे। समाज ने भी इसे मिटाने का कोई सार्थक प्रयास किया हो ऐसा दिखाई नहीं देता। आज विभिन्न जातियों तथा वर्गों के इस देश में होते सम्मलेन तथा उनमें इस देश के तथाकथित अशिक्षित बुद्धिजीवियों की प्रतिभागिता , इस दुर्भाग्य के विषय में सबकुछ सहज ही अभिव्यक्त कर देती है।

जाति-बोध होना और जातिगत आचरण करना दो पृथक विषय हैं। इस देश की समस्या जाति -बोध नहीं जातिगत आचरण है जिसने अपनी परिधि स्वयं इतनी संकुचित कर ली है कि उसमें देश समा ही नहीं सकता। ऐसे लोग देश के वारे में क्या सोच सकते है जिनके विचारों पर जातिवाद की कुंठा ने अपना आधिपत्य जमा रखा हो। जब देश स्वतन्त्र हुआ तो इस देश में ५०० से अधिक रियासतें थीं। एक मसीहा सरदार पटेल के रूप में इस देश में आया और उसने इस देश को एकसूत्र में बांधने की ठान ली और यह देश उसके पीछे हो लिया। लेकिन इस देश में ऐसी भी शक्तियां थीं जिन्होंने अपने स्वार्थ में इस देश मैं फिर से जातिवाद के आवरण में इस देश को विघटित करने को योजना बना ली । देश को इसे समझना होगा। ऐसी शक्तियों से बचना होगा। यदि हम स्वतन्त्र होने का दावा करते है और विश्व में अग्रणी देश बनाना चाहते है तथा स्वयं अपनी प्रभुसत्ता को अक्षुण्ण रखना चाहते है तो हमें अपने आचरण में जातिवाद की कुंठाओं को मिटाना ही होगा। राजनितिक निष्ठाओं और प्रतिबद्धताओं में कैद तथाकथित अशिक्षित बुद्धिजीवी ऐसा होने देने में बाधक बन सकते है , लेकिन ऐसे लोग मुट्ठी भर हैं और यह देश अत्यंत विशाल है। भविष्य हमारा है और हमें ही इसके लिए सजग रहना है। क्या हम ऐसा करेंगे?

One thought on “जातिवाद की जंजीर में क़ैद :

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