वो अज़ीम शख़्स था उसे ख़ुद पर यक़ीन था ,
वो था तो समन्दर मगर दरिया सा रहता था ,
दुश्वारियों के सफ़ों पे वो ज़िन्दगी लिखता था ,
मंज़िलों की चाहतों से मगर वो बेपरवाह था !
सियहरात के धुँधलके उसके लिए फ़जूल थे ,
आँधियों के तेज थपेड़े भी उस पर बेअसर थे ,
उपेक्षाओं और झंझावातों में वो पला-बड़ा था ,
गुलशन का गुल नहीं वो बन-फूल जैसा था !
देने को उसके पास अब कुछ बचा भी नहीं था ,
लोगों ने तभी तो उससे किनारा कर लिया था ,
किसी सूखे दरख़्त जैसा वो अब दूर खड़ा था ,
जाने कितने सवालात मगर रोज़ बुन रहा था !
वो इतिहास बन गया है ये उसको भी इल्म था ,
लोगों को भी उसका आज नहीं कल क़बूल था ,
वक़्त उसकी दहलीज़ लाँघ दूर निकल गया था ,
फिर भी वो सूखी रेत पर लकीरें खींच रहा था !
वो अज़ीम शख़्स था उसे ख़ुद पर यक़ीन था ,
वो था तो समन्दर मगर दरिया सा रहता था !