सियहरात का ये बेचैन अँधियारा ,
धुँधलके में घिरा हुआ ,
या किसी शापित अंधे कुएँ के ,
निष्प्राण तल से झाँकता हुआ ,
किसी लैम्पोस्ट की रोशनी से ,
जन्म लेती प्रभामणियों को ,
किसी मैले आँचल से ढँकता हुआ ,
दिनभर की उड़ान से थके हुए पक्षियों को ,
किसी वृक्ष की टहनियों पर ,
शीतल घनी पत्तियों की चादर से ,
हौले से ढँककर सुलाता हुआ ,
दूर किसी प्रेमातुर प्रेमी-युगल को ,
आलिंगनबद्ध करता हुआ ,
किसी अभागी बिरहिन को ,
किसी तप्त-कुंड में ढँकेलता हुआ ,
उत्सर्जन की उत्ताल तरंगों से ,
सुकुमारता को सजाता हुआ ,
या थमती सी जान पड़ती साँसों को ,
वेदना के कसकते स्वर देता हुआ ,
कहीं इंद्रधनुषी स्वप्न सजाता हुआ ,
कहीं रुसवाइयों को गहरा करता हुआ ,
अनजाने सृजन की आरज़ू लिए ,
संवेदनाओं को झकझोरता हुआ ,
किसी किरणीली सुबही की तलाश में ,
इन खुली हुई खिड़कियों से झाँकता है !
यह अँधियारा हर रोज़ झाँकता है !!