पथिक ! मलिनता छोड़ तनिक ग़ौर से सुनो ,
यदि स्वप्न नहीं हैं तो फिर संवेदनाएं नहीं हैं ,
यदि संवेदनाएं नहीं हैं तो जिजीविषा नहीं है ,
यदि जिजीविषा नहीं है तो जीवन्तता नहीं है ,
यदि जीवन्तता नहीं है तो जीवन ही नहीं है !

पथिक ! इसलिए स्वप्न देखो उत्कर्षण के ,
पाषाणी रुकावटों से बेपरवाह जलधारा के ,
नित नई ऊर्जा का संचार करती अरुणिमा के ,
थके-हारे जीवन को शीतलता देती चाँदनी के ,
आंधी-तूफान के थपेड़ों से बेपरवाह वृक्षों के ,
श्वासों की संजीवनी बनती मन्द हवाओं के ,
धरती की प्यास बुझाती रिमझिम वृष्टि के ,
बन्धन में भी आभा बिखेरती शांत झील के ,
स्थित-प्रज्ञ जैसे मुनिवत् अथाह सागर के ,
या सृजन को आतुर नूतन अभिव्यंजना के !

पथिक ! तब तुम चहुँओर महसूस करोगे ,
मधुर तान-धुन पर थिरकती स्वर-लहरी ,
चिड़ियों की चहचहाहट का मोहक संगीत ,
महकती सुवास से रंजित वासंती हवायें ,
कल-कल करती नदियों का मधुर प्रवाह ,
किरणीली सुबही का तेजोमयी आह्वान ,
धवल परिधान में सजी निशा का मनुहार,
अन्तस् की गहराइयों में सृजन का आवेग,
और तुम्हें एहसास होगा उस रचयिता का ,
कितना सुंदर और मनोहारी है यह संसार !!

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