धीरे-धीरे बीत रहा था वो पलों की तरह ,
बह रहा था हवाओं में वो झोंकों की तरह !
न चाँदनी की कशिश थी न उषा की ललक ,
इन्हें वो लाँघ आया था मुसाफ़िर की तरह !
ज़मीन अजनबी थी और फ़लक बहुत दूर ,
वो बह रहा था समन्दर में लहरों की तरह !
न जाने कौनसे सपने थे जो पुकारते थे उसे ,
उड़ रहा था जिनके लिए वो पंछी की तरह !
जिंदगी तो फ़साना बन गयी थी उसके लिए ,
वो गढ़ रहा था लकीरें काल-खण्ड की तरह !
धीरे-धीरे बीत रहा था वो पलों की तरह ,
बह रहा था हवाओं में वो झोंकों की तरह !
योगेंद्र कुमार