कल महिला-दिवस था। अनेक स्थलों पर नारी-सम्मानार्थ कार्यक्रम आयोजित किये गए। मेधावी महिलाओं के लिए पुरस्कार-वितरण समारोह भी किये गए। ये बात और है कि इनमें से अधिकतर कार्यक्रम पुरुषों द्वारा आयोजित या प्रायोजित थे। दिनभर बधाइयों का सिलसिला चलता रहा। अनेक लेख और आलेख भी लिखे और प्रकाशित किये गए। टी.वी . चैनलों पर भी कल का दिन महिला-दिवस के लिए आरक्षित रहा। देश के अनेक गणमान्य लोगों ने तथा शीर्ष राजनेताओं ने महिला सशक्तीकरण पर एक से बढ़कर एक उद्बोधन प्रस्तुत किये। सबकुछ देखकर लगा कि अब तो नारी समानता के नए अध्याय और इतिहास ने मूर्तरूप ले लिया है। अब इस देश में तथा विश्व में कम से कम लिंगभेद तो समाप्त हो ही जाएगा। अब सामाजिक विषमताएं समाप्त हो जाएँगी और एक नए समाज का अभ्युदय होगा।
आज फिर एक नया दिन आया है और लगता है कल अनेकों समारोहों की थकान मिटाकर यह देश और समाज फिर से अपनी पूर्ववत् दिनचर्या पर चल पड़ा है। कल की आशाएं फिर से किसी दिवास्वप्न में खो जाने को आतुर हैं और प्रतीक्षा कर रही हैं कि अगले वर्ष फिर यह दिन आए और इसे फिर से नई धूमधाम और ऊर्जा से मनाया जाय। आज लगता है जैसे सब कुछ हो गया हो यथावत् !
यह बात तो कदाचित लोग भूल ही जाते हैं कि मूल प्रश्न और उसका निराकरण तो कहीं और है। समाज को यह बात समझनी होगी कि वह तभी उन्नत हो सकता है जब पुरुष और नारी की सहभागिता हो। दोनों के कार्यक्षेत्र सहभागिता से ही सार्थक हो सकते है। मातृत्व नारी की विशिष्टता भी है और प्रकृति की आवश्यकता भी। बच्चे का लालन-पालन और उसमें संस्कारों का निरूपण केवल माँ ही कर सकती है। पुरुष इसमें नारी की समानता नहीं कर सकता है और इस परिप्रेक्ष्य में नारी की श्रेष्ठता को नकारा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार परिवार के लालन-पालन में पुरुष के नैसर्गिक दायित्व भी स्वतः अवधारित हैं। एक दूसरे की भूमिका के लिए सम्मान की भावना किसी भी परिवार के सुखमय जीवन के लिए अपरिहार्य है। इसमें दोनों का सहकार भी एक स्वतः परिणति है। यह एक ध्रुव सत्य है कि जिन परिवारों में माताएं अपने शिशु को आयाओं या चाइल्ड केयर में डालकर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेती हैं , ऐसे बच्चे अपने बचपन की नटखटता से अनजान होते जाते हैं और उनका यथेष्ट मानसिक विकास नहीं हो पाता है। इसी प्रकार जिन परिवारों में पुरुष अपनी भूमिका यथेष्ट रूप से निर्वहन नहीं करते , उनमें भी बच्चों में एक असुरक्षा की भावना घर कर जाती है। भौतिक सम्पन्नता की दौड़ में लीन समाज अब अपने नैसर्गिक दायित्वों से कहीं न कहीं समझौता करता जा रहा है और उसके विषाक्त परिणाम भी दिखने लगे हैं जिनका असर अब अनगिनत तलाक और सम्बन्ध विच्छेद के रूप में सामने आ रहा है । समानता की अपनी परिभाषा बुनते समाज को यह सोचना होगा कि कहीं भौतिकता की अंधी दौड़ तो इसके समुचित अवधारण न हो पाने का कारण नहीं।
यह भी एक सत्य है कि नारी का शोषण सबसे अधिक नारी के द्वारा ही किया गया है। कभी सास के रूप में , कभी नन्द के रूप में और कभी बड़े घर की बहू के रूप में। अधिकाँश घरों में महिलायें अपनी-अपनी सास से मिली कड़वाहट को भूल नहीं पाती हैं। उन्हें नन्द के सापेक्ष मिली असमानता की टीस अभी भी कचोटती है। रिश्तों में यह असमानता महिलाओं की स्वयं की देन है। बेटे को बेटी पर वरीयता देना , बेटी को पराये घर का धन कहकर सम्बोधित करना जैसी मान्यताएं इस समाज की जड़ में विद्यमान हैं। जूझने के विषय और प्रश्न तो यह हैं। इनका उत्तर दफ़्तरों में नौकरी पा लेना या अपने नैसर्गिक दायित्वों से विमुख होना , नहीं हो सकता है। समाज को यह सोचना होगा कि मोबाईल फोन पर सभी प्रकार के मनोरंजन की उपलब्धता किशोरावस्था को या नवयौवनाओं और नवयुवकों को कौनसा पाठ पढ़ा रही है और कौनसे समानता के अवसर दे रही है। प्रति वर्ष बलात्कार के बढ़ते प्रकरण समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं और कहीं हमारी अपने नैसर्गिक दायित्वों से विमुखता तो इसका कारण नहीं बन रही है ?
अच्छे परिवार और अच्छे समाज को बनाना कोई आसान काम नहीं। पुरुष और नारी एक ही रथ के दो पहिये हैं। इनमें समानता तो इस रथ के चलने की सबसे पहली आवश्यकता है। मदर्स डे पर जब मैं अनगिनत पोस्ट फेसबुक पर देखता हूँ , या फिर माँ के विषय में लिखे गए अनेकानेक लेख या कवितायें या इसी प्रकार का साहित्य पढ़ता हूँ तो अक्सर मुझे माँ , जो एक नारी है , उसकी श्रेष्ठता का सहज ही बोध होता है। ऐसा यह समाज ही देता है। ऐसा हमारे सांस्कृतिक मूल्य देते हैं। ऐसा बोध हमें वो निश्छल और असीम स्नेह कराता है जो हमें इंसान बनाने में हमारी माँ ने हमें दिया। तब समाज में वही श्रेष्ठ और पूज्यनीय नारी आज किस समानता के लिए द्वंद्व करती जान पड़ती है , यह भी विचारणीय है। मेरा यह दृढ़ मत है कि नारी को स्वयं ही अपनी परिधि को तलाशना होगा। उसे स्वयं ही जागना होगा और अपने नैसर्गिक दायित्वों के साथ ही समाज में अपना स्थान निश्चित करना होगा। यह लड़ाई उसी की है और इसके साधन भी उसी के पास हैं।
अशिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिसने समाज की लिंग असमानता को समय-समय पर उजागर किया है लेकिन शिक्षा बड़ा गूढ़ विषय है और इन पंक्तियों में इस पर गहराई से कुछ लिख पाना संभव नहीं क्योंकि मैं केवल डिग्री प्राप्त कर लेने को शिक्षा नहीं मानता। समाज में बढ़ती निरंकुशता मेरे कथन की पुष्टि करने को पर्याप्त है। लेकिन लड़कियों को विद्यालयों से विमुख रखना और वह भी केवल लिंग-भेद के कारण। यह तो स्पष्ट रूप से निंदनीय और भर्त्सना के योग्य है। नारी-शिक्षा के क्षेत्र में आज बहुत पहल हो रही है और यह स्वागतयोग्य है।
परन्तु मूल प्रश्न सामाजिक परिवेश और स्वीकार्यता पर ही आकर टिक जाता है और यहीं आकर मैं निरंतरता का पोषक होना श्रेयस्कर मानता हूँ। इस परिवर्तन को नारी-दिवस से अधिक कुछ और की आवश्यकता है जिसमें दायित्वों का संतुलन अत्यंत आवश्यक है तभी परिवारों और समाज में संतुलन होगा। यह किसी का क्षेत्र छीनने का विषय नहीं अपितु अपने क्षेत्र के निर्धारण का विषय है। क्या महिला-दिवस पर यह बिंदु विचारणीय नहीं ?