रोज़ देखता हूँ तन्हा चाँद को ,
नीरवता भरे सन्नाटे में ,
अपनी धवल दीप्ति से बेखबर ,
नभ में टँगे तारागणों के बीच ,
किसी आकाशगंगा के किनारे ,
अपनी छोटी सी पेशानी पर ,
जन्मों की अतृप्ति की सिलवटें सँजोये ,
वितृष्णा की गाथा का ,
न जाने कौनसा अध्याय लिखते ,
एक अंतहीन यात्रा में ,
धुँधलाती सी उसी राह पर ,
घुटनों-घुटनों चलते हुए ,
किसी उद्विग्न शिशु की तरह !