श्रीमद्भगवतगीता एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है जिसमें मानव-जीवन का सारतत्व निहित है ! इसकी प्रासंगिकता वर्त्तमान में भी उतनी ही है जितनी कि महाभारत काल में थी। यह महान ग्रन्थ मनुष्य के समस्त अंतर्द्वंद्वों , मनोभावों और जिज्ञासाओं का सांगोपांग उत्तर देता है। वस्तुत: हमारा शरीर ही धर्मक्षेत्र- कुरुक्षेत्र है। हमारे मन में पलता अनुराग ही अर्जुन है और हमारी अंतश्चेतना ही भगवान कृष्ण का स्वरूप है। जीवन -पर्यन्त जिनसे हम द्वंद्व करते हैं वो हमारे ही स्वजन , रिश्ते- नातेदार , भाई-बांधव , मित्र , सहयोगी और वे सभी होते हैं जिसने हम किसी न किसी रूप में कभी न कभी जुड़े होते हैं। इसीकारण यह महाभारत हमारे अंदर सदैव चलता रहता है। इनमें से कौन कब साथ दे , यह समय एवं परिस्तिथि की बात होती है। हमारी अंतश्चेतना सदैव हमें सही कर्तव्य का बोध कराते हुए कर्मयोग के लिए प्रेरित करती है और हमारा अनुराग हमें भटकाता रहता है। नहीं जानता कितने परन्तु आदि काल से अनगिनत धर्म , सम्प्रदाय , मत -मतान्तर श्रीमद्भगवतगीता के किसी न किसी अंश मात्र से प्रभावित होकर जन्म लेते रहे , पनपते रहे परन्तु हमारे अंतर्मन में हो रहे इस कुरुक्षेत्र के द्वंद्व और कृष्ण स्वरुप अंतश्चेतना और अनुरागी अर्जुन स्वरुप मन की स्वीकार्यता से दूर रहे क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य का आत्मचिंतन स्वरूप विकसित होने का भय इनके प्रसार को प्रभावित कर सकता था। आज के जीवन में बढ़ते हुए तनाव और उनसे कोई हल पाने की जुगत में बेचैन ये वर्त्तमान , न जाने कहाँ -कहाँ भटक रहा है और श्रीमद्भगवतगीता के सार-तत्व से अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने को उद्यत दिखाई नहीं देता है। वस्तुत: श्रीमद्भगवतगीता तो सभी के पढ़ने-योग्य ग्रंथ है। यह किसी धर्म विशेष का ग्रन्थ न होकर समस्त मानवजाति के कल्याण का ग्रन्थ है !