दर्द ! तुमने मुझको दी ये कौन-सी तन्हाइयाँ ,
चाहतें सब ग़ुम हुई और बन गयीं रुसवाइयाँ ,
दौड़ते थे छूने को जो कल तक मेरी परछाइयाँ ,
सुनसान हुए वो रास्ते और वीरान पगडंडियाँ !

जो कभी करती थीं आँगन में मेरे अटखेलियाँ ,
अपनों की वो महफिलें और झूमती नजदीकियाँ ,
तुमने अपने स्वार्थी और स्पृहायुक्त व्यवहार से ,
सबको दे दीं कुछ न कुछ बहानों की मजबूरियाँ !

कभी तुमको बाँटने से कम होती थीं दुश्वारियाँ ,
अब वो काँधे ही कहाँ जो कम करें परेशानियाँ ,
भीड़ है जो दौड़ती इन तंग रास्तों के दरमियाँ ,
किसे फुरसत अब यहाँ जो कम करे कठिनाइयाँ !

सोचता हूँ तुमको मैं अंतस में अपने घोल लूँ ,
चाहतों का गरल पीकर एक शिव मैं भी बनूँ ,
रिश्ते-नाते तो हैं बस आनद उत्सव के लिए ,
प्रवंचनाएँ छोड़कर मधुरत्व की रचना करूँ !!

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