किसी भी देश की सभ्यता को यदि नष्ट करना है तो उसकी संस्कृति और शिक्षा दोनों को नष्ट करके ही इस उद्देश्य की पूर्ति संभव है। यह बात प्रत्येक आक्रांता को हमेशा ज्ञात रही और इसी कारण इस देश में आने वाले आक्रांताओं ने सबसे पहले इस देश की शिक्षा और संस्कृति पर करारा कुठाराघात किया। १२वीं शताब्दी के आरम्भ से चले इस खेल ने इस देश के प्राचीन इतिहास को ही मृतप्राय कर दिया। यहाँ की ऐतिसाहिक इमारतों को, यहाँ के पूजा स्थलों को , यहां के शिक्षा संस्थानों , यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर को जमकर नष्ट किया गया। कोई ऐसा पौराणिक मंदिर या शिक्षा-स्थली नहीं है जिसे क्षत-विक्षत न किया गया हो। आज असहिष्णुता का राग अलापने वाले ये भूल जाते हैं कि यह इस देश की समभाव , समन्वय और सहिष्णुता की ही संस्कृति थी जिसने आक्रांताओं को भी इस देश की मूलधारा में किसी बहती जलधारा की तरह समाहित कर लिया। आज भी जब पौराणिक मंदिरों , भवनों , कलाकृतिओं को देखता हूँ तो खंडित मूर्तियां , खंडित शिक्षास्थल , खंडित इमारतें ही दिखाई देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तथाकथित सेक्युलरिज्म के नाम पर इनकी जो उपेक्षा आरम्भ हुयी वह आज पर्यन्त ऐसे ही चल रही है मानो आज भी किसी आक्रांता का इस देश में शासन हो। आज भी चाहे कोणार्क का विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर हो , चाहे लक्षशिला और नालंदा के जगत प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हों , हम्पी के अनगिनत मंदिर हों या उसके ध्वंसावशेष , चित्तौड़ , कुम्भलगढ़ , जैसलमेर , रणथम्भोर , आमेर के किलों की कलाकृतियां इनके मंदिर और सांस्कृतिक विरासतें आदि ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जहां जीर्णोद्धार का कोई कार्य नहीं किया गया। आज का नवयुवक न तो सम्राट अशोक को भलीभांति जानता है , न ही उसे सम्राट हर्षवर्धन के विषय में कोई जानकारी है , महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को जानने समझने वाले भी उँगलियों पर गिने जा सकते है। वैशाली और मगध साम्राज्य की वैचारिक , सामाजिक ,सांस्कृतिक , सामरिक और आर्थिक सम्पन्नता के विषय में किसे ज्ञान है ? आज भारत के प्राचीन इतिहास पर कितने शोध हो रहे हैं , और उन्हें कितनी प्रमुखता मिल रही है। आज की सरकारें , शिक्षा-संस्थान , विश्वविद्यालय इन विषयों को कितना प्रोत्साहन दे रहे है , यह किसी से छिपा नहीं है। टीवी चैनलों पर व्यर्थ की बकवास प्रसारित करने के अलावा और किसी सार्थक विषय पर किसी अनुसंधानात्मक डिबेट को किसी ने कभी होते देखा है। आज के पत्र -पत्रिकाओं में कभी इन विषयों पर कोई चर्चा या आलेख प्रकाशित होते देखा है। कभी-कभी तो क्षोभ से मन भर जाता है कि यह हो क्या रहा है। मैं पाश्चात्य सभ्यता का विरोधी नहीं। लेकिन मैं महात्मा गांधी के इस विचार को अक्षरशः सही मानता हूँ कि सभी धर्मों का आदर करो लेकिन अपने धर्म का निष्ठा से पालन करो , अपनी संस्कृति को यथेष्ट सम्मान दो। अच्छा हुआ कि गांधीजी ने स्वतंत्रता के बाद का यह आधुनिक भारत नहीं देखा , नहीं तो उनके ये तथाकथित अनुयायी उन्हें अवश्य ही सांप्रदायिक कहते क्योंकि वह तो ” रघुपति राघव राजा राम , पतित पावन सीताराम ‘ के उद्घोषक और अनुयायी थे। मैं आज की पीढ़ी को इसके लिए कोई दोष नहीं देना चाहता क्योंकि उसने तो वही ग्रहण किया जो उसे इस देश के तथाकथित कर्णधारों ने उपलब्ध कराया। वो तो उसी दिशा की ओर जा सकती थी , जो इस देश के उत्तरआधुनिक सभ्यता के पोषक समाज ने प्रदान की। परन्तु ये प्रश्न आत्मविश्लेषण के हैं। ये प्रश्न किसी सम्प्रदाय या किसी सभ्यता के विरुद्ध नहीं अपितु उस विरासत के जीर्णोद्धार के लिए है जो मृतप्राय होती जा रही है ! क्या हम इस दिशा में कुछ सार्थकता से कर पाएंगे ?

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