रुपहली साँझ को देखकर ,
जब नदी इठलाने लगे ,
हवाएं गुनगुनाने लगें ,
जुगनुओं की रोशनी ,
मुस्कराकर तिमिर को चिढ़ाने लगे ,
पानी के छपाकों की मंद-मंद आवाज़ ,
स्वर-लहरी बन स्पंदन करने लगे ,
पतवार का दामन थामे नौका ,
किनारों के स्पर्श के लिए बढ़ने लगे ,
किसी समंदर के दूसरे छोर पर ,
आसमाँ धरा के आलिंगन को मचलने लगे ,
तारों के आभूषण से सुशोभित ,
नीले परिधान को ओढ़कर ,
धवल चाँदनी के रथ पर सवार ,
रात दस्तक देने लगे ,
और निश्छल उन्मुक्तता में डूबी ,
भोली-भाली आकांक्षाएं ,
राकापति से मिलन की बाट जोहने लगें ,
हे! जिंदगी !
तुम इन प्यासे अधरों को ,
जीवंतता का एक अमर गीत दे जाना !

One thought on “आरज़ू . . .

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