कभी-कभी लगता है कि प्रकाश अंधकार का पूरक है और कभी लगता है कि अंधकार ही प्रकाश का पूरक है। यह अंधकार ही है जिसकी गहनता में सृजन की ग्रंथियां खुलती है और नवीनता का सृजन करती है। अंधकार मुनिवत् संचेतना का संधान करता जान पड़ता है , मानो मन की गहराइयों में साँस लेती विचार श्रृंखलाओं को जीवंतता और अभिव्यक्ति देने की जुगत करता हो। इसी कारण अँधेरा चहुँओर से न जाने कितने आह्वान करता और अनगिनत शब्दचित्र खींचता सा जान पड़ता है !