वो रोज़ दबे पाँव दस्तक देता है ,
मुस्कराता है और चला जाता है !
बुलाता है मेरे माज़ी को हौले से ,
बुदबुदाकर वो कहीं खो जाता है !
ढूँढ़ता रहता हूँ उसे बेचैनियों में ,
अंतस को चीरती थकी साँसों में !
ठहरे हुए कुछ क्लांत से पलों में ,
या फिर दीवार पर टँगे चित्रों में !
फिर यूँ ही अनमना सा देखता हूँ ,
बेज़ार से दिखाते इन दरवाज़ों को !
या फिर झाँकता हूँ खिडकियों से ,
इन दूर जाते बियाबान रास्तों को !
चाहकर भी उसे रोक नहीं पाता ,
मनुहार को निष्प्राण कर जाता है !
इस बेकसी से अठखेलियाँ करके ,
मेरी दहलीज़ लाँघ चला जाता है !
वो रोज़ दबे पाँव दस्तक देता है ,
मुस्कराता है और चला जाता है !!