जिंदगी बहुत चाहा मैंने कि तेरी सिलवटें खोल दूँ ,
पर तू तो बेगानों की तरह और भी उलझती गयी।
बहुत चाहा नयनों में काजल की तरह सजाऊँ तुझे ,
पर तू तो सियहरात बनके सपनों को छलती रही।
बहुत चाहा उषा की लालिमा की तरह संवारूँ तुझे ,
पर तू तो विकट विद्युल्लता बन भय दिखाती रही।
बहुत चाहा सावन की फुहारों से सिंचित करूँ तुझे ,
पर तू तो निदाघ की ऊष्मा बन मुझे जलाती रही।
बहुत चाहा स्वप्नों की सुकुमारता से सजाऊँ तुझे ,
पर तू तो छलनामयी प्रवंचनाएं लिए सताती रही।
जिंदगी बहुत चाहा मैंने कि तेरी सिलवटें खोल दूँ . . .