अनमना सा देखता हूँ सामने दीवार पर ,
मन्द -मन्द -सी किन्तु विलुलित रोशनी में ,
बनते-बिगड़ते और फिर खुद ही सँवरते ,
अपने माज़ी को पहचान देने को आतुर ,
कुछ गहराई तक साँस लेते शब्द-चित्र !
जो तैरते हैं मेरी धमनियों में लहू बनकर ,
जो अन्तस में थिरकते हैं धड़कन बनकर ,
जो अन्तश्चेतना में पलते हैं जीवन्तता बनकर ,
जो श्वासों में रहते हैं प्राण-वायु बनकर ,
जो अवचेतना में भी ले जाते हैं सहज ही ,
क्षितिज के उस पार किसी स्वप्न लोक में ,
और न जाने कैसे भेदते हैं मेरा अंतरिक्ष ,
तब विचारमग्न बूझता हूँ उलझे प्रश्न ,
जिनके ध्वनि-आवर्त नहीं छोड़ते मेरा दामन ,
जिनसे कभी-कभी परास्त होती है मेरी जिजीविषा ,
परंतु तभी पुनः जीवन्त होता है मेरा आवेग ,
और तब जीवन की पहेलियों में उलझते ,
देखता हूँ फिर से विस्तृत होती परिधि के ,
किसी अनजान तल-खोह-अँधेरे से झाँकते ,
सृजन की ग्रंथियों को गहराई से झंकझोरते ,
अपनी गाथा स्वयं बुनते कुछ और शब्द-चित्र !