देखता हूँ अजीब सा नैराश्य ,
जैसे रिस-रिसकर मानवता ,
किसी व्यभिचार के बिस्तर पर ,
आहत सी ले रही हो विक्षिप्त सी साँसें ,
क्लान्त और बुझे मन से ,
तिमिर अतल से धुँधलके को चीरते ,
अनात्म भाव से विचलित होकर ,
देखती हों केवल चुभते शून्य ,
और कुछ अजन्मे से दुःस्वप्न ,
मलिन आकांक्षाओं और झुलसते भविष्य के ,
निज-स्वार्थ के रक्तलोक में विचरते ,
चन्द पुराेधाओं के हाथों ,
मलिन होते उद्यान के ,
बुद्धि का भाल तोड़ती ,
उनकी पिपासा भरी उड़ान के ,
केवल और केवल अंधी आकांक्षाओं के ,
तिलिस्म भरी मदमस्त अहं-गर्जना के ,
और लुटती हुई सांस्कृतिक अस्मत के !
चहुँओर कैसा दहकता अट्टहास ,
भदरंगी सी किसी निर्जीवता को पाकर ,
जैसे किया गया हो कोई,
अभेद्य छलनामयी विजयी निनाद ,
सबकुछ हो जैसे शापग्रस्त ,
एकदम बिखरा-बिखरा सा ,
विलुलित नेत्रों से देखता हूँ ,
अपनी परिणति खुद बुनता ,
अजीब सा विक्षिप्त चित्रलोक !