पथिक ! तनिक ग़ौर से देखो ,
उस प्रवाहमान जल-प्रपात को ,
जिसने न जाने कितने संकल्पों से ,
न जाने कितनी जिजीविषा से ,
न जाने कितनी साधना से ,
और कालजयी अथक परिश्रम से ,
अभेद्य चट्टानों को चीर कर ,
बनाया है अपना मनोहारी उद् गम !

पथिक ! तुम यह भी जान लो ,
यहीं समाप्त नहीं होती उसकी श्रम-साधना ,
कितने वेग से गिरती है उसकी जल-धारा ,
उन पहाड़ों की तलहटी में ,
सहते हुए प्राणों को झकझोरती वेदना ,
किसी माता की प्रसव -वेदना की तरह !
परन्तु यह जल-प्रपात भी किसी माता की तरह ,
निर्मल जल-धारा के सृजन होते ही ,
भूल जाता है अपनी समस्त वेदना ,
जानता है सृजन का अर्थ ,
देता है यह न जाने कितनों को ,
सुकुमारता की अनूठी अनुभूति ,
अपनी जल-धारा की शीतलता से ,
देता है न जाने कितनों को अप्रतिम आनंद ,
और तत्पर रहता है बुझाने को ,
न जाने कितनों की जन्मों की प्यास !

पथिक ! देखो फिर तनिक ग़ौर से देखो ,
इसके जीवन में है केवल अप्रतिम जिजीविषा ,
श्रम , साधना और वेदना के पहाड़ को लांघती ,
बिना किसी स्व की लालसा के ,
निरन्तर बस सृजन की लालसा में मग्न !

तुम भी त्याग दो अपनी मलिन अकर्मण्यता ,
मत करो क्षोभ कठिनाइयों के पहाड़ का ,
अवसरों की अनुपलब्धता का ,
समय के क्रूर झंझावातों का ,
लोगों की अवहेलना और उपहास का ,
और जान लो यह अमिट सत्य ,
जिजीविषा अवसर ढूँढती नहीं ,
अवसर का सृजन करती है ,
उस प्रवाहमान जल-प्रपात की तरह !
इसलिए विलम्ब मत करो ,
तुम भी जल-प्रपात बन जाओं !
पथिक ! तुम भी जल-प्रपात बन जाओ !!

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