सुनो पथिक !
इन हवाओं पर लिखा पैगाम सुनो ,
इन पर किसी ने लिख डाली है ,
ईर्ष्या , द्वेष , वैमनस्य और टकराव की इबारत ,
अब ये हवाएँ कर रही हैं विषाक्त ,
तुम्हारे इस उपवन को ,
जिसमें कभी पल्लवित थे खुशरंग गुलाब।
क्या तुम नहीं देखते और बूझते ,
इन खुशरंग गुलाबों की थाती ,
कोई ऐसी ही विषाक्त हवा ,
दूर ले गयी है चुराकर ,
न जाने कहाँ , न जाने किस ओर ,
तभी इनमें नहीं रही वो मनमोहक सुवास ,
रह गया है केवल छ्द्म रंग ,
आवरण ओढ़े कृत्रिम मोहकता का ,
यहां मन की गहराइयों में पलने वाली ,
सहज ही आकर्षित करने वाली ,
अब वो इनकी प्रेममयी थाती कहाँ ?
अब तो निर्णय तुम्हारा है ,
इन निरंकुश होती विषाक्त हवाओं का ,
यह उद्दंड रुख मोड़ दो ,
बता दो इन्हें कि यह उपवन ,
नहीं है जागीर इन हवाओं की ,
यह तुम्हारी सभ्यता की ,
तुम्हारी संवेदनाओं की ,
तुम्हारे स्वर्णिम अतीत की ,
और तुम्हारी अमूल्य परम्पराओं की ,
मन की गहराइयों में पल्लवित होती ,
एक है अमिट धरोहर !
चन्द हवाओं के उच्छृंखल झोंके ,
अपनी मनमानी से ,
नहीं कर सकते हैं नष्ट ,
तुम्हारे इस उपवन को ,
इनका भ्रम तोड़ दो ,
इनकी मनमानी रोक दो ,
अपने बिखराव को त्याग कर ,
जुट जाओ नवनिर्माण में ,
लौट आये जिससे तुम्हारे ,
खुशरंग गुलाबों की सुवास।