कौनसे अजनबी वो मेरे स्वप्न थे ,
आसमानों से मनुहार करते रहे ,
तेज हवाओं के झोंके बनकर जो ,
मुझसे मेरी जमीन ही छुड़ाते रहे !
अजनबी शहर की तपिश में भी ,
उन्हीं रिश्तों-नातों को ढूँढा किए ,
कितने ही नकाबों में लिपटे हुए ,
जो हर रोज़ छलावे करते रहे !
हवाओं का रुख भी बदलता गया ,
रुतों की करवटें भी बदलती गयीं ,
और सूखी टहनियों में आस लिए ,
कोपलों के दिवास्वप्न बुनते रहे !
ज़िन्दगी सिलवटों में उलझती रही ,
ख़्वाब बुनती रही दंश सहती रही ,
और उस बियाबान मरुस्थल में भी ,
सूखी रेत के ही घरोंदे बनाते रहे !
ये तो मालूम था प्रश्न होंगे अनेक ,
दिल को घेरेंगे और टीस देंगे मगर ,
कौनसी ज़िद में मन की वीणा लिए ,
चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे !