रात्रि-तिमिर की नीरवता में ,
न जाने कौन-सी गहन वेदना के ,
तीव्र ध्वनि आवर्त सँजोता ,
दूर क्षितिज के उस छोर पर ,
बादलों को चीरकर आसमान बरसा !
देखता रहा स्वप्न-खगों पर सवार ,
अँधियारे को अनमना होकर उड़ान भरते हुए ,
ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओँ को पीछे छोड़ते हुए ,
गगनचुम्बी पर्वत श्रृंखलाओं को लाँघते हुए ,
और अपरिमेय सिंधु की लम्बाई को नापते हुए !
किसी दैवीय लोक की सिहरन सँजोए ,
अनमना सा और कदाचित ठगा सा ,
किसी गहरी बहुत गहरी टीस को छिपाए ,
विकट विद्युल्लता की गर्जना से आहत ,
दूर क्षितिज के उस छोर पर ,
वो देखो आसमान बरसा !!